SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८५] [ साधारण धर्म न होता तो पदार्थोंमे सत्यता-प्रतीति ही न होती, परन्तु संस्कारों के उद्बोध करके ही 'वही ये पदार्थ है' ऐसा सजातीय वस्तुओं मे प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षका भ्रम होता रहता है। इससे स्पष्ट हुआ कि सजातीय वस्तुओं में प्रत्यभिज्ञा- प्रत्यक्षका भ्रम ही जीवके श्रहंममत्व रूपसे वन्धनका मूल है। यदि श्रहन्ता ममता के विषय सजातीय पदार्थमै प्रत्यभिज्ञा-भ्रम न होता तो जीवके लिये कदापि कोई बन्धन ही नहीं था । (५१) इस प्रकार जामत्-प्रपञ्चमे सत्यताकी भ्रान्ति दृढ़ हो जानेसे इसके विपरीत स्वप्न-प्रपञ्च में भ्रमत्व-निश्चय स्वाभाविक हो जाता है। भ्रमत्व-निश्चयके कारण ही स्वप्नके अनुभवजन्य संस्कार दृढ़ व स्थिर नहीं रहते और इसीसे न पुण्य-पापके जनक ही होते हैं। इसी कारण स्वप्नसे जागकर स्वप्नकी स्मृति कुछ कालके लिये तो रहती है फिर विस्मृत हो जाती है। जिस प्रकार बाल्याबस्थासे लेकर वृद्धावस्थापर्यन्त प्रत्येक मनुष्यको अपने जीवनकी चेष्टाओंकी स्मृति ज्यूँ-की-त्यूँ रहती है, उसी प्रकार ऐसा मनुष्य कोई नहीं जो एक मासके स्वप्नोकी भी स्मृति रखता हो । (५२) इस रीति से जाग्रत व स्वप्नमें कोई भेद नही है। जिस प्रकार स्वप्रके कर्ता-भोक्ता व भोग्य मिथ्या हैं और इस जीवके स्वरूपमें कोई विकार नहीं करते, उसी प्रकार जाग्रत्के कर्ता-भोक्ता, भोग्य व पुण्य-पापादि अत्यन्त सत्य है । परन्तु केवल उन सृजातीय वस्तुओंमें प्रत्यभिज्ञात्व-भ्रम करके कि 'वही मैं हूँ और वही ये पदार्थ हैं' असत्यमें सत्य-बुद्धिके कारण ही यह जीव कर्तृत्व- भोक्तृत्व के बन्धनमें बन्धायमान हो जाता है और मिथ्या कर्तृत्व-अभिमान करके मिध्या कर्म संस्कारो से बँधा हुआ आप
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy