SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 469
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Fe] [ साधारण धर्म है और कभी अग्निको शीतलस्वभाव तथा जलको उष्णस्वभाव जानता है, जो कि जाग्रत्-अन्तःकरणकी मर्यादासे विलक्षण है और जाग्रतमें ऐसा अनुभव कमी नहीं हुआ। इस प्रकार जाति व रूपकी विलक्षणता, सुख-दुःखकी विलक्षणता, पुण्य-पापकी मर्यादाकी विलक्षणता, भूतोंके गुणोंकी विलक्षणता और नीति की विलक्षणता होनेसे यह स्पष्ट है कि दोनो अवस्थाओमे अन्तःकरणकी एकता नहीं है । क्योकि रूप, जाति, गुण, पुण्य, पाप, सुख, दुःख, मर्यादा व नीति इन सबका वोध केवल अन्तःकरण मे ही है। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि सुपुप्तिमे अन्तःकरणके लीन हो जानेपर रूप, जाति व गुणादिके सब ज्ञान अन्तःकरण में ही लीन हो जाते हैं और फिर अन्तःकरणका विकास होनेपर यह सब ज्ञान उसीसे निकल पड़ते हैं। इसीलिये सुपुनि-अवस्थामे इनका कोई भेदभाव नहीं रहता, वल्कि वहॉअन्तःकरणके अभाव से क्या चाण्डाल, क्या राना, क्या पशु, क्या पक्षी सबका ही अभेद हो जाता है, इससे स्पष्ट है कि यह सब भेद अन्तःकरणमें ही हैं। इस प्रकार जबकि सुख-दुःख, पुण्य-पापादि व जातिगुणादि सत्र मर्यादाओंका सम्बन्ध केवल अन्तःकरणसे ही है, तब यदि दोनो अवस्थाओंमें एक ही अन्तःकरण हो तो इस प्रकारकी विचित्र विलक्षणता नहीं होनी चाहिये । क्योंकि पदार्थों का स्वरूप, गुण, पुण्य-पाप और सुख-दुःखादिकी मर्यादा व नीतिका निर्णय करनेवाला जव कि अन्तःकरण ही है तो फिर जिस अन्त.करणने जाग्रत्मे जैसा रूप-गुणादिका निश्चय किया है, उसके अत्यन्त विरुद्ध वहीं स्वप्नमे कैसे निश्चय कर सकता है? इसलिये मानना पड़ेगा कि दोनो अवस्थानोंमे अन्तःकरणकी एकता नहीं है। इस प्रकार दोनो अवस्थाओंमे अन्तःकरणोंका भेद होनेसे और दोनों अवस्थाओका अनुभव कर्ता कोई एक
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy