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________________ १७१] [ साधारण धर्म (३६) वेदान्त इन दोनोसे आगे बढ़कर कहता है किन उपादानसे भिन्न कार्य कोई दूसरी वस्तु ही उत्पन्न होता है और न उपादान कार्यरूप परिणामको ही प्राप्त होता है। यदि उपादान से भिन्न कार्य कोई दूसरी वस्तु हुई होती तो उपादानसे अधिक भिन्न देश-कालमे कार्यकी प्रतीति होती, परन्तु उपादानसे भिन्न देश-कालमे कार्यकी अनुपलब्धि है। जैसे घट-पटादि कार्यमेसे यदि मृत्तिका व तन्तुको निकाल लेवे तो घट-पटादि कोई वस्तु शेष नहीं रहते, यदि उपादानसे भिन्न घट-पटादि नई वस्तु उपजे होते तो कपाल-तन्तुके निकाल लेनेपर उनकी उपलब्धि होनी चाहिये थी, परन्तु होती नहीं, इसलिये आरम्भबाद मिथ्या है। तथा उपादान यदि कार्यरूप परिणामको प्राप्त हुआ हो तो कार्य के नष्ट होनेपर उपादान शेप न रहना चाहिये, जैसे दुग्ध दधीरूप में परिणत होनेपर फिर दुग्धरूपसे शेप नहीं रहता। परन्तु घटपटादि कार्योंके नष्ट होनेपर तो मृत्तिका व तन्तु उतनेके उतने संख्या व परिमाणमें शेष रहते है, रञ्चकमात्र भी न्यूनता नहीं होती,इसलिये परिणामवाद भी मिथ्या है। (३७) वेदान्तका कथन है कि कार्य अपने उपादानसे भिन्न कोई वस्तु है ही नहीं, बल्कि उपादानरूप ही है। कार्य अपने उपादानका केवल विवर्त्त है और उपादानकी ही एक दूसरी सज्ञा है, वास्तवमे कार्यका उपादानसे भिन्न रूप कोई नहीं जैसे सर्प रज्जुमा विपत है, रज्जुसे भिन्न रर्षका और कोई रूप है ही नहीं, वह तो केवल प्रतीतिमात्र ही है। उपादन त्रिकाल-सत्य है, कार्यसे पूर्व, कार्यके पश्चात् तथा कार्यके मध्य उयादान ज्यू-का-त्यूँ है । अर्थात् उपादान आप ज्यू-का-त्य रहता हुआ अपने आश्रय कार्यको प्रतीतिमात्र कराता है, वास्तवमे तो कार्य अपने उपादान "में कल्पित है। कार्य अपने उपादानका विवर्त्तमात्र होनेसे
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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