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________________ आत्मविलास ] [१८ आसन है । परन्तु विपरीत इसके, जब हम इस हृदयगत गएको किसी एक केन्द्र बाँधकर तुच्छ स्वार्थका बन्धन लगा देते हैं और इसको फैलने से रोक देते हैं, तब इसका प्रवाह चलनेसे रुक जाता है । इस प्रकार एक स्थानमे ही रोके रमकर और इसको परिमित बनाके हम इसको अपवित्र व गटला कर देते हैं। जैसे नदीका पानी जब एक स्थानमें ही पाल बॉधकर रोक दिया जाय तो उसका स्रोत रुक जायगा, साथ ही वह मैला होकर सडने लगेगा, परन्तु यदि उसकी पाल तोडदी जाय तो यह स्रोत के रूपमें चालु होजानेसे पवित्र व निर्मल होने लगेगा और साथ ही बहुतसी भूमि उसके प्रतापसे हरी-भरी होजायगी । 'बहता पानी निर्मला, खड़ा सो गंदा होय' इसी प्रकार स्वार्थत्यागमूलक द्वेप इसीलिये पुण्यरूप है कि वह केन्द्रित रागके तुच्छ स्वार्थी बन्धनको, जिमन राम के प्रवाह को रोककर अपवित्र कर दिया था, तोडकर फेला देता है, उस रागके स्रोतको चालू करके निर्मल बना देता है और बहुतसे हृदय-क्षेत्रोंको हराभरा करदेता है । इससे सिद्ध हुआ कि स्वार्थस्वाग-मूलक द्वेप, द्वेपरूपसे पुण्य नहीं, किन्तु रागकी समताका विस्तार करके रागरूपसे पुण्य है। एक वैराग्यचान् महात्माके लिये वैराग्य इसीलिये महान् पुण्यरूप है कि उसने तुच्छ समारसम्बन्धी रागके बंधनको तोड़कर रागकी समताका विस्तार किया है और 'वसुधैव कुटुम्बकम' भावको जाग्रत कर दिया है। राग-द्वेषसे पुण्य पापका सम्बन्ध किस प्रकारसे कैसा है ? जाब विकासनगद इसकी व्याख्या की गई। अब प्रकृतिके गुणों के तारतम्यसे पुण्य-पाप तथा आत्म निरूपण विकासका कुछ निरूपण किया जाता है । प्रकृति के राज्यमें जितने
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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