SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [साधारण धर्म द्रव्य, गुण व कर्म, त्रिविध-परिच्छेदवाले होनेसे अधिष्ठान चेतन के विवर्त्त मिद्ध हुए और वह अधिष्ठान चेतन ही एकमात्र इन सबका विक्र्लोपादान-कारण सिद्ध हुआ। जो आप ज्यका त्यू रहे और अपने आश्रय अन्य कल्पित विकारोकी प्रतीति करावे वह 'विवोपादान-कारण' कहा जाता है, जैसे रज्जु अपने विवर्न वर्ग, दण्ड, माला आदिके प्रति विवर्तोपादान-कारण है। (२८) इस दृष्टिसे घट-पटादि कार्योंके प्रति कपाल-तन्तु श्रादिको कारणता असिद्ध है। क्योंकि घट-पटादिके प्रति कपालतन्तु पाटिको कारणता तब सिद्ध हो जयकि कपाल-तन्तु आदि अपने कार्योंसे पूर्व सिद्ध हो । परन्तु उपर्युक्त विचारांसे देश-कालवस्तुपरिच्छेदवाले किसी भी पदार्थमे प्राक्सिद्वता है नहीं, किन्तु ज्ञान-समकालीन उनकी आमासमात्र नवीन ही उत्पत्ति होती है। जैसे दर्पणमें मुख और मुखका ज्ञान जब देखते हैं तब नवीन ही उत्पन्न होता है, 'कल देखा था वही यह मुख है। ऐसी प्रतीति दर्पणमें भ्रमरूप है। इसी प्रकार साक्षी-चेतनमें कपाल-तन्तु श्रादि वस्तु' और 'वस्तुज्ञान' अपनी दृष्टि-समकालीन आभासमात्र नवीन ही उत्पन्न होते हैं और दोनों परस्पर मापेक्ष हैं। इस प्रकार जब कि उपर्युक्त गतिमे कपाल-तन्तु आदिमे न अपनी कोई मत्ता है और न अपने कार्योंसे पूर्व उनकी सिद्वि है, तब वे अपने कार्योंके प्रति कारणरूपसे कैसे ग्रहण किये जा सकते हैं ? (२६) इस रीतिमै मभी वृत्तिरूप ज्ञान व विपय धुद्धिके ही परिणाम हैं और सानी-चेतनके पानय बुद्धि ही भिन्न-भिन्न ज्ञान व विषयके श्राकारको धारती है, इनमे कारण-कार्यभाव रबकमात्र भी नहीं। जैसे स्वप्नमें बुद्धि हो जानाकार व विपयाकार परिणामको प्राप्त होती है, बाह्य कुछ भी नहीं, तैसे ही स्वप्न भमान इनकी प्रतीति केवल भ्रमरूप है। तथा जैने स्वप्नके पिता
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy