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________________ आत्मविलास] [१६ ___ इसलिये राग तो अपने रूपसे वेदान्तके लक्ष्यके अनुकूल है, वह किसी तरह भी पापरूप नहीं हो सकता। हॉ, प्रकृति का यह अटल नियम है कि किसी भी परिच्छिन्न पदार्थमें सत्यत्वबुद्विसे राग, उससे भिन्न अन्य सब पदार्थोमें कैप उत्पन्न कर देता है, जो कि अनिवार्य है। वेदान्त तो यह चाहता है कि दूध तो पिया जाय, परन्तु कुत्ते की खलडीमें डाल कर नहीं। राग तो किया जाय, परन्तु परिच्छिन्न-दृष्टि से नहीं, बल्कि रागकी समतारष्टिका विस्तार हो, इसीको आत्मविकास कहते हैं । परन्तु किया क्या जाय ? किसी भी परिच्छिन्नवस्तु में सत्यत्वबुद्धिसे राग, अपने साथ द्वप लिये हुए है। जितना-जितना राग संकुचित होगा,उतना-उतनाही द्वष विकसित होगा और जितना-जितना-राग विकसित होगा,उतना-उतना ही द्वेप सकुचित होगा । अर्थात् जितना-जितना तुच्छतादृष्टि से राग होगा, उतना ही द्वपकी वृद्धि होगी और जितना-जितना उदारता व विशालता-दृष्टिसे राग होगा, उतना-उतना ही द्वेष का अभाव होगा। ___ अत सिद्ध हुआ कि राग अपने स्वरूपसे पापरूप नहीं है। परन्तु परिच्छिन्न-वस्तुका राग, द्वेपको उपजाने करके द्वापरूप से पाप है,रागरूपसे पाप नहीं। जितना-जितना रागसंकुचित होगा, उतना-उतना ही द्वप अधिक होगा और उतनी ही पाप की वृद्धि होगी। तथा जितना-जितना राग विकसित होगा, उतना ही द्वीप न्यून होगा और उतना ही पुण्यकी वृद्धि होगी। इसीलिये स्वार्थमूलक राग पापरूप और स्वार्थत्यागमूलक राग पुण्यरूप है। क्योंकि स्वार्थ अपने सम्बन्धसे रागको संकुचित व सीमावद्ध करके द्वपकी वृद्धि करता है, इसीलिये वह दूषित और पाप है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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