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________________ १२६] [साधारण धर्म यही आशय भागवतके प्रारम्भमें भगवान् व्यासजीने निरूपण किया है। धर्मस्य ह्यापवर्गस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते । नार्थस्य धर्मकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः॥ कामस्य नेन्द्रियप्रीतिलामो जीवेत यावता। जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः ॥ वदन्ति तत्तत्वविदस्तवं यज्जानमद्वयम । ब्रह्मति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ।। (मागवत प्रथम स्कन्ध अ० २ श्लले० ६, १०, ११) अर्थः-धर्मका फल धनादि नहीं है, किन्तु मोक्ष ही धर्मका फल है। धनादिका फल कामलार नही माना गया है, किन्नु सत्पात्रोके निमित्त धन व्यय करके धर्म उपार्जन करना ही धनका मुख्य फल है। कामका फल विषयभोगद्वारा इन्द्रियप्रीति करना नहीं है, किन्तु तुधा-पिपासादि कारके वेगको निवृत्तकर जीवनरक्षा करना ही कामका फल है । जीवनका फल संसारसम्बन्धी कर्नामें फरो रहना नहीं है. किन्तु तत्त्वजिज्ञासा ही एकमात्र फल है, जिसको तत्त्ववेत्ता तत्व', 'अद्वैत' चा 'जान' कहते हैं और "जो 'ब्रह्म', 'परमात्मा', या 'भगवान' शब्दों करके कथन किया जाता है। - इस प्रकार जब यह अपने लक्ष्यकी ओर जा रहा है, तव कृतन कैसे। अब आपका यह विचार कि इस त्यागसे सम्बन्धियोंकी हानि होती है, बहुत ही थोथा है और-सत्यकों न जानकर ही ऐसा प्रलाप किया जाता है। भला, सत्यके सम्बन्धसे भी कभी किसीकी हानि हुई है ? सूर्यका अन्धकारसेक्या सम्बन्ध
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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