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________________ [ साधारण धर्म भला, इसके समान और कठोरता क्या होगी? तुम ही कहो । जो वस्तु जैसी है उसको चैसा न देख उससे विपरीत देखना, यही तो अनानरूप जड़ता है और जड़ता ही कठोरता है। जो सुखस्वरूप अपने ही भीतर भरपूर है, उस परमसत्यसे मुँह मोड़ स्वप्नरूप संसारमें आसक्त हो जाना, इसके समान जड़ता और कठोरता क्या होगी? साधो! दुइ दूर जब होवे, हमरी कौन कोई प्रत खोवे ? साधो ! कौन नशा तुम पीया ? अब लग आप सही नहीं कीया ॥ सिन्धु विषे रश्वक सम देखे, आप नहीं पर्वत सम पेखें। चमके नूर तेज सब तेरा, तेरे नयनन काहे अन्धेरा। ' देखो ! इस समयतक सत्यताके तीर हमने तो अपनी ओरसे खूब ही बँच-बैंचकर मारे हैं, परन्तु सम्भव नहीं जान पड़ता कि किसी हृदयमें इनका घाव हुआ हो। किसी भूले-भटकेका तो कहा नहीं जाता। हृदयकीववत् कठोरताका यह स्पष्ट प्रमाण है। इसके विपरीत हमारे इस दीवानकी ओर दृष्टि डालो कि सत्यके इन अचूक तीरोंने इसके हृदयको कोमल करके पानीके समान बहा दिया है, जिससे मिथ्या संसारकी कोई आसक्ति अब उसको चला नहीं सकती। सांसारिक मिथ्या आसक्तिरूप वाए अब उसके हृदयमें विना क्षोभ पैदा किये इसी प्रकार प्रवेश कर जाते हैं, जैसे समुद्र में फैके हुए बम्बके गोले किसी प्रकार क्षोभ उत्पन्न किये विना समुद्रमे समा जाते हैं। परन्तु तुम तो इस कोमल हृदयको कठोर कहते हो । भाई ! यह कठोरता नहीं, यह तो परम कोमलता है। हाँ, यह बात भिन्न है कि जैसे यवन * अर्थात् समुद्र में रचकमात्र मोती होता है, उसको तो वडे काटसे पाने के लिये व्यानुल होते हैं, परन्तु अपने भीतर पर्वतके समान जो अविनाशी मोती भरा हुया है उसको नहीं देखते। , ,,
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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