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________________ ११७] [ साधारण धर्म बुद्धि, यही तो अविद्या देवीकी रचना है। फिर इस अविद्यारचित संसारमे यह सब विपरीत भावना हो तो आश्चर्य ही क्या है ? तुम्हारे अन्दर भी तो वही नटनी नृत्य कर रही है, तुम्हारा क्या दोष है ? तुम इसीलिये अपने मुंह से थोडा ही बोलते हो न तुम अपने कानोसे सुनते हो, न अपनी आँखोसे देखते हो और न अपनी बुद्धिसे सोचते ही हो, बल्कि दूसरोकी बुद्धि, आँख और कानसे ही काम लिया जाता है, यही तो पाप है। अरे माई ! मनुष्यको ये बुद्धि, आँख, कान यू ही परमात्माने नहीं दिये है, बल्कि ये ईश्वरकी परम दात हैं और एकमात्र अपने देखनेजानने के लिये ही प्रदान किये गये हैं। इसलिये मनुष्यका मुख्य कर्तव्य है कि सत्त्वगुणकी वृद्धिद्वारा इनका सदुपयोग करे, अपनी ही बुद्धिसे सोचे, अपनी ही आँखोंसे देखे और अपने ही कानोंसे श्रवण करे। 'अजी सब संसार कहता है, वैराग्य बड़ा कटु है !' अरे भाई । सव संमारका कहना ही किसी विषयकी सत्यताका प्रमाण नहीं हो सकता । मब संसार कहता है, 'सूर्य घूमता है, पृथ्वी ठहरी हुई है। सव संसार कहता है, 'मनुष्यजीवन बारम्बार नहीं मिलता, इसलिये मनुष्य-शरीर पाकर खूब भोगोंको भोग लेना चाहिये, बस यही इस जीवनका फल है।" तब क्या इसको सत्य माना जाय ? दुनिया तो उल्टी ही चकी चलाती है : रंगीको नारंगी कहें, वने दूधको खोया। चलतीको गाडी कहे, देख कबीरा रोया ।।, परन्तु तुम ही कहो, उलूक-पक्षी यदि सूर्यको अन्धकारका गोला देखता है, तब इसमें सूर्यका क्या दोष ? पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम् ? नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दृषणम् ?
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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