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________________ [ साधारण धर्म जायगा और यह एकमात्र ज्ञानद्वारा ही साध्य है । निष्काम-कर्म जालका साधन होनेमे हेय नही किन्तु उपादेय है, परन्तु प्रकृतिका यह अटल नियम है और 'पुएबपापकी व्याख्या में इसका भली-, भाँति मिद्धान्त किया जा चुका है कि जब हम किसी पड़ावको ही उहिष्ट-स्थान मान बैटने हैं और वही डेरा डालकर आगे बढ़ने से इनकार करते है, तब हम उल्टा नीचे गिरने लग पड़ते हैं और द्वेषभाव हमारी गर्दन पकड़ने लग जाता है। जिस प्रकार किसी नदीके प्रवाहको बन्धन लगाकर जब आगे बढ़नेसे रोक दिया जाता है, तब उस प्रवाहको उस बन्धनमे टकर खाकर पीछे लौटना पड़ता है और पानी टक्कर खानेसे झाग-झाग हो जाता है। ठीक, इसी प्रकार जब हम अपने आत्मोन्नतिके प्रवाहको मार्गके किसी पडायमें डेरा डालकर और उसीको मञ्जिल मानकर श्रागे बढनेसे रोक देते हैं, तब हमको टक्कर खाकर पीछे लौटना पड़ता है और मागोंके रूपमें उपभाव आत्मोत्कृष्टताके कारण हमको दवा लेता है। इसलिये हमारा मुख्य कर्तव्य है कि किसी पड़ावको ही मंजिल माननेसी भूल न करें, सदैव ध्यान रखें कि हमको इसमें भागे पहुँचना है और पीछे मुड़कर न देखे । केवल तभी निविनतासे किसी रुकावटके बिना हम अपनी मंजिलपर पहुँचनेमें समर्थ हो सकेगे और उपादि विकारोसे सुरक्षित हो सकेंगे। मारांश:"न योगेन न सांख्येन कर्मणा नोन विद्यया । ब्रह्मात्मैकत्ववोधेन मोक्षः सिद्धयति नान्यथा ।। अर्थ:- केवल श्रात्मा चं ब्रह्मके एकत्वज्ञानसे ही मोक्षकी मिद्धि होती है, अन्यथा न हठादि योगसे, न प्रकृति-पुरुपविवेकसुन माल्यसे, न निकाम-कमोदिसे और न शास्त्राध्ययनरूप परोक्षज्ञानसे ही मोक्ष सम्भव है। (सिलामत-निराकरण समाम हुआ)
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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