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________________ आत्मविलास] [१०४ द्वि० खण्ड अर्थ.-(१) वह परमात्मा देश-काल-वस्तुपरिच्छेदसे रहित तथा सजातीय-विजातीय-स्वगतभेदसे रहित एक और अद्वितीय है, भ्रम करके ही उसमे यह सर्व भेद व परिच्छेद भान होते हैं। (२) उस परमात्मामे नानात्व कुछ भी नहीं है। (3) जो यहाँ नानात्वको सत्य जानता है वह मृत्युसे मृत्युको प्राप्त होता है, अर्थात् आवागमन इस नानात्व-दृष्टि करके ही है। फिर यह कैसे समझा जा सकता है कि उन सर्वज्ञ तत्त्ववेत्ता महापुरुपोका आशय भ्रमरूप संसारकी सत्यताके गीत गाते रहकर थूकके पकोडोको गटकने रहने के लिये हो है । परन्तु ऐसा नहीं है, न तो सर्वज्ञ-ऋपियोकी दृष्टिमे ससार सत्य ही है और न त्यागद्वारा ससारकी क्षति ही होती है। बल्कि त्यागद्वारा तो ससार अपने तक्ष्यकी ओर अग्रसर होता है। सम्पूर्ण संसारका लक्ष्य एकमात्र 'सुख-शान्ति' ही है और वह केवल त्यागद्वारा ही प्राप्त की जा सकती है । त्याग ही उसका मूल्य है, जितनी मात्रामे उसका मूल्य चुकाया जायगा उतनी मात्रामें ही वह खरीदी जा सकती हैं, फिर संन्यासका मार्ग निरोध करनेका क्या अर्थ हो मकता है ? हाँ, यह माना कि देशसेवादि पवित्र चेष्टाएँ है, इनके द्वारा राग-द्वेपकी मात्रा घटाई जा सकती है और व्यक्तिगत स्वार्थसे छूटकर आत्मविकासका यह उच्च साधन है, परन्तु भस्मासुरकी भॉति यहाँ तो उल्टा इसका दुरुपयोग होने लगा। भरमासुरने शिवजीसे वर प्राप्त किया कि जिसके सिरपर तू हाथ रक्सेगा वह भस्म हो जायगा, वर प्राप्तकर वह शिवजीपर ही इसकी परीक्षा करने दौड़ा। इसी प्रकार व्यक्तिगत स्वार्थोसे छूटकर जिम त्यागके आशीर्वादसे देशसेवाको आदर मिला, श्राप तो उल्टा उस मूर्तिमान त्याग (सन्यास) को ही भस्म करने को उद्यत हुए । अनी । यह तो मान ही लिया जायेगा कि देश
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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