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________________ ११ [साधारण धर्म क्या सोचे क्या समझे राम' तीन कालका वॉ क्या काम ? क्या सोचे क्या समझे राम? तीन लोक नहीं उपजे धाम । नित्य तृप्त सुख सागर राम । क्या सोचे क्या समझे राम ! लोकसंग्रह वारतवमें कर्तव्य नही हुआ करता, यदि कर्तव्य है तो वह लोकसंग्रहका पात्र ही नहीं। लोकसंग्रहका पात्र तो वही होगा जिसकी चेष्टा स्वाभाविक ऐसी पवित्र होजाय, जैसे अङ्गों का पड़कना स्वाभाविक होता है। यदि क्तव्य रखकर चेष्टाएँ की गई है तो वे कृत्रिम है, ऐसी चेष्टाएँ लोकसंग्रहरूप नहीं हो सकती। क्योकि उन चेष्टाओका अभी उसके खस्वरूपमें प्रवेश नही हुआ वे केवल स्वॉगमात्र है । वाभाविक चेष्टाओंमे और कर्तव्यरूप चेष्टाओमें बड़ा अन्तर है। सारांश यह है कि ज्य-त्यू करके पहले अपना सुधार कर लेना चाहिये । जैसे-जैसे आपकी निजी प्रकृति आपके लिये मार्ग खोलती है, चाहे निवृत्तिद्वारा चाहे प्रवृत्तिद्वारा आत्मकल्याण कर जाना चाहिये । यह आग्रह और वन्धन न लगाओ कि प्रवृनिमे ही रहना है और निवृत्ति घृणित है । शरीररूपी स्थकी वागडोर उस कृष्णके हाथ में दे दो, पिपर संसाररूपी कुरुक्षेत्रसे वह तुमको साफ निकाल ले जायगा, जरा आँच भी न आने देगा । क्या प्रवृत्ति व क्या निवृत्ति ससारमे कोई पदार्थ निप्पयोजन नहीं है, कालभेद व अधिकारभेदसे सभी अमृत हैं। रोगीके अधिकारानुसार विपभी अमृत बन जाता है, तव अमृतवरूप निवृत्तिका तो कहना ही क्या है ? जिस प्रकार वह आत्मदेव रीमे उसको रिमा लेना चाहिये, अपने-आपकी प्रत्येक वलि उसके चरणों मेट धरनेके लिये उद्यत रहना चाहिये। जब वह रीझ गया और आप अपनी आन्तरिक शीतलता करके शीतल हो गये, तब आपके दर्शनमात्रसे सभी शीतल हो जाएंगे। जैसे चन्द्रमा जव अपने आपमे शीतल होता है, तब उसके दर्शन'
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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