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________________ ३ [ साधारण धर्म कर्मको यद्यपि इसमें आदर दिया गया है, परन्तु ज्ञान, त्याग व संन्यासको निन्दा नहीं की गई, बल्कि त्याग, संन्यास व ज्ञानको पूर्ण महत्व दिया गया है. (देखो अ. १३ श्लो. ७ से ११, अ. १८ श्लो. ५१ से ५३ व अ. ४ श्लो. ३३ से ३६) तथा प्रकृतिके तीनों गुणोंके अनुसार अधिकारको भली-भॉति पुष्ट किया गया है। तिलक महोदयने गीताका तात्पर्य प्रवृत्तिमण्डन व निवृत्तिखण्डन में भले ही निकाला हो, परन्तु यह सम्भव नहीं जान पड़ता और सात्त्विक-बुद्धि आज्ञा नहीं देती कि वस्तुत. गीताका तात्पर्य निवृत्तिखण्डनमें है। सच बात तो हैं यूं कि प्रवृत्तिको भी जो आदर गीतामें मिला है वह निवृत्तिरूप त्यांगके सम्बन्धसे ही मिला है। जैसे हलवेको प्रियता मिली है तो मिश्रीके सम्बन्धसे, मिश्री विना अपनी उसमे कोई त्रियता नहीं, इसी प्रकार प्रवृत्ति भी मानपात्र हुई है तो केवल फ्लत्यागरूप निवृत्ति के मेल करके। फिर यह क्योंकर माना जा सकता है कि निवृत्तिरूप मिश्री अपने स्वरूपसे त्याज्य है। गीताका प्रत्येक शब्द व प्रत्येक आशय व्यापक है। इसी प्रकार 'कर्म' व 'योग' शब्द भी उसमें गम्भीर हैं और व्यापक अर्थ रखते हैं। 'कर्म' शब्द का अर्थ केवल शारीरिक धाएँ ही नहीं, किन्तु मानसिक व बौद्धिक चेष्टाएँ भी गीता की व्याख्यामें 'कर्म' हैं। परन्तु तिलक महोदयने शारीरिक प्रवृत्तिरूप चेष्टानोको ही 'कर्म' मानकर मानसिक व बौद्धिक तत्त्वचिन्तनादि निवृत्तिरूप चेष्टानोको 'कर्म' से भिन्न त्याव्य माना है, जो किसी प्रकार गीताका तात्पर्य नहीं हो सकता। यदि निवृत्तिरूप मानसिक व बौद्धिक चेताओंको भी 'कर्म' रूपसे ग्रहण किया जाय (जो गीताको मान्य है) तो तिलक-मत निर्मूल हो जाता है। वेदान्तके आशयको न समझ, मुक्त-कर्तव्य (कर्तव्यराहित्य) -
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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