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________________ [ साधारण धर्म जाय-तो कुछ न करना' भी कर्तव्य बन जाता है और 'अनासक्त बुद्धिसे कर यह विधि भी कर्तव्य हो जाता है। तिलक महोदय के दोनों कथन ही भ्रममूलक हैं । 'कर्तव्य अशेप' का भावार्थ तो यह है कि जहाँ पहुँचकर न तो कुछ न करना ही कर्तव्य रहे और न 'अनासक्त बुद्धिसे करना ही क्तव्य रहे, वहाँ ही 'कर्तव्य अशेप' थयार्थरूपसे सिद्ध होता है। जैसे शिशुकी समस्त शारीरिक चेवाएँ स्वाभाविक कर्तव्यशून्य होती हैं, वैसे ही जिन ज्ञानी पुरुषोंने अपने-आपको ज्यूँ का त्यूँ जाना है उनकी शारीरिक व मानसिक सर्व चेष्टाएँ स्वाभाविक कर्तव्यशून्य होती हैं और स्वाभाविक लोकसंग्रहका श्राकार धारण कर लेती हैं। क्योंकि सत्यकी ज्योति उनके हृदय में प्रकट हुई है, इसलिये जो कुछ उनसे निकलता है 'सत्य' 'प्रकाश' ही निकलता है ।जैसे सूर्यसे जो कुछ निकलता, है वह प्रकाशरूप रश्मि ही होती है। सारांश यह कि विद्वान-ज्ञानीपर लोकसंग्रह किसी प्रकार कर्तव्यरूपसे आरोपित नहीं किया जा सकता। क्योंकि जहाँ पर्तव्य है वहीं अहान है, कर्तव्य सदेष भेदरष्टिमें ही बनता है और भेददृष्टि ही अज्ञान है। (१५). तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर। - - : * असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुपः ।। (३-१६) अर्थ-इसलिये तू अनासक्त हुआ निरन्तर करनेयोग्य काँका भली प्रकार श्राचरण पर, क्योंकि शनासक्त कर्माका आचरण करता हुथा पुरुष परमात्माको प्राप्त हो जाता है। इस श्लोकमे 'तस्मात् (इसलिये) शब्द अपनेसे पूर्व श्लोकके माथ समन्वय सिद्ध करता है। श्लोक ३. १७ व ३. १८ में भगवान् ने कहा है, . : त्रिसकी अपने आत्मामें प्रीति है और जो स्त्मामें ही हम - वसन्तुष्ट है, 'तस्य कार्य न विद्यते' उसके लिये कोई कर्तव्य
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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