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________________ ७७] [ साधारण धर्म की प्राप्ति सम्भव है। बानद्वारा विष्काम-कर्मयोग किसी प्रकार साध्य नहीं बनाया जा सकता । अव यदि यह कहा जाय कि इस लोकम, भगवान्ने अर्जुनको खड़ा होनेके लिये कहा है तो इससे शानीपर कोई कर्तव्यरूप विधि सिद्ध नहीं होती। यदि भगवान् के मतसे मानीपर विधि होती तो अपने उपदेशकी-समाप्ति पर भगवानको स्पष्ट कहना चाहिये था कि तुमे युद्ध करना कर्तव्य है, परन्तु वे तो भन्तमें कहते हैं। , 'मैंने तेरेको अपना अति गुह्य-ज्ञान कह दिया है, इसको विचारकर 'यथेच्छसि तथा कुरु' अर्थात् नैसी तेरी इच्छा हो वैसा कर (अ. १८ श्लो. ६३)। (१६) : सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । 1. अर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीपर्लोकसंग्रहम् ।। (३. २५) __अर्थः-हे भारत ! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही भनासक्त हुआ विद्वान् लोकसंग्रहको चलाता हुमा र्म करे। इस श्लोकसे स्पष्ट विदित है कि भगवानने विद्वान् पर अपने निमित्त तो कोई कर्तव्य नहीं रक्खा, बल्कि लोकसंग्रहके "निमिच कर्म करनेको कहा है, सो भो कर्तव्यरूपसे नहीं किन्तु एक परामर्शरूपसे कहा है। 'कुर्यात विद्वान्' अर्थात विद्वान् लोकसंग्रहको करे, विद्वान्पर कर्तव्य है ऐसा नहीं कहा गया । यदि विद्वानके लिये विधि भावानको इष्ट होती तो 'पुर्यात के स्थानपर 'कर्वप' शब्दका प्रयोग क्या वह नहीं कर सकते थे ? परन्तु भगवानको 'विद्वान्पर विधिरूप कर्तव्य इष्ट नहीं है। दूसरे, विद्वान् की प्रत्येक चेय स्वाभाविक ही लोकसंग्रहरूप होती है। उसको लोकसग्रह बनानेके लिये कोई कर्तव्य धारण करना नहीं पड़ता। यदि वह कृत्रिमरूपसे कर्तव्य धारकर लोकसंग्रह करना चाहे, तब बह
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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