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________________ [६७ साधारण धर्म] अपने-श्राप अनुभव करेगा तथा आगे इसी अध्याय ५ श्लोक ४ व ५ में सांस्य व योगका अभेद इस प्रकार वर्णन कर रहे हैं: 'एक सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। 'सांख्ययोगौ पृथग्वालाः प्रवदन्ति न पण्डिता ॥ . फिर बीचमें ही कर्मसंन्याससे 'कर्मयोग' की विशेषता मानी जाय तो वदतोव्याधात-दोष आता है, इसका कोई समाधान विलक-मतमें नहीं मिलता । वेदान्त-मतमें तो इसकी स्पष्ट सङ्गति है और वदनोव्याघात-दोष भी नहीं 1 यह इस प्रकार है: (१) 'सांख्य' व 'योग' दोनों एक ही स्थानको लेजानेवाले हैं उनके लक्ष्यका भेद नहीं । लक्ष्य के अभेद करके ही उनकी एकता कथन की गई है, परन्तु पड़ावोंका भेद अवश्य है। इसको श्लोक नं०१ की व्याख्यामें स्पष्ट किया गया है। . () योगसंसिद्धिके द्वारा ज्ञानप्राप्ति सम्भव है, यह अध्याय ४-३८ में भगवानको इष्ट है। और शानद्वारा ही मोक्षकी सिद्धि हो सकती है, जैसा गीता अ. ११ श्लो.,६, १०, १९ व अ. १८ श्लो.५१, ५२, ५३ में कहा गया है। (३) जो पुरुष जिस साधनका अधिकारी है उसके लिये वही मोक्षप्रद है, क्योंकि उस साधनके द्वारा ही वह मोक्षमार्गमें अग्रसर हो सकता है। अधिकारभिन्न साधन चाहे ऊँचा भी छोवह उसके लिये अधःपतनका ही कारण होगा। जैसे ज्वरपीड़ित रोगीके लिये घृत पुष्टिकारक नहीं, किन्तु रुक्ष अन्नसे ही वह बल प्राप्त कर सकता है, वैद्य उसके लिये रुक्ष अन्न ही पथ्य बतलाना है। इसी पहले कुछ कहना और पीछे आप ही उसे काट देना, इस दोषको 'वदती व्याघाव दोष कहते हैं। । ... ;
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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