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________________ [आत्म-विलास अर्थः हे निष्पाप ! पूर्व मेरे द्वारा इस संसारमें दो प्रकारकी निष्ठा कही गई हैं, 'ज्ञान-योग' द्वारा सांख्योंकी और 'कर्मयोग' द्वारा योगियोंकी । इस श्लोकसे भी तिलक महोदयकी उक्ति सिद्ध नहीं होती । अधिकारमेहमे यह दो निष्ठाएँ भिन्न-भिन्न हैं जरूर, मोक्षप्राप्तिमें दोनोंकी अपेक्षा अवश्य है, परन्तु इससे इन दोनोंकी स्वतन्त्रता व तुल्यबलवत्ता मिद्ध नहीं होती। यदि भगवानको इनको तुल्यबलवत्ता इष्ट होती तो यह कह सकते थे कि योगीजन चाहे 'कर्म-योग' से जाएँ चाहे ज्ञान-योग' से, और सांख्यवाले चाहे ज्ञान-योग' से जाएँ चाहे 'कर्म-योग' से । परन्तु इसके विपरीत भगवान्ने तो स्पष्टरूपसे अधिकारको स्थिर किया है और कहा है कि योगके अधिकारियोंको 'कर्मयोग' से ही गमन करना चाहिये न कि ज्ञान-योगसे, और सांख्यके अधिकारियोंको 'ज्ञान-योग' से ही जाना चाहिये न कि 'कर्म-योग' से । परन्तु तिलक मतमें तो कहा गया है कि दोनो स्वतन्त्र हैं जिसकी इच्छा जिस मार्गसे जानेकी हो वह उसी मार्गसे जा सकता है इसके विपरीत इस श्लोकमें तो ऐसीस्वतन्त्रता नहीं दी गई, यहाँ तो अधिकारका बन्धन लगाया गया है। अब यदि ऐसा कहा जाय कि 'कर्म 'ज्ञान' का पूर्वाग नहीं, तो अ४ श्नो. ३३ में स्पष्टरूपसे भगवान्ने कह दिया है कि "हे परन्तप । द्रव्य-यज्ञकी अपेक्षा ज्ञान-यज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि हे पार्थ ! समस्त काँका ज्ञानमें पर्यवसान होता है।" यदि कर्म पूर्वांग न होता तो ज्ञानमें पर्यवसान भी न पाता, क्योंकि फलमें ही फूलका पूर्वाग होनेसे पर्यवसान होता है, और ज्ञान-यज्ञकी सर्वश्रेष्ठता भी न गाई जाती । यदि दोनों मार्ग 'स्वतन्त्र व तुल्यबल समझे जाएँ, तब उनमेंसे एकको 'सर्वश्रेष्ठ - कहना कोई अर्थ नहीं रखता । इससे आगे ही अ. ४ श्लो. ३५,
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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