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________________ ६० - आत्मवितास इस अवमें 'योग' शब्द व 'कर्म' शब्दकी व्याख्या हो चुकी तिलकमतमें प्रमाणभूत , है, इसलिये उन गीताशोकोपर जिनको गीतालोकोंकी समा- तिलक महोदयने अपने मतकी पुष्टिमें लोचना और उनके द्वारा प्रमाणरूपसे ग्रहण किया है, विचार स्वपक्षसिद्धि कर लेना आवश्यक है। प्रागे चलनेसे पहले तिलकमतपर व वेदान्तसिद्धान्तपर सामान्यरूपसे दृष्टिपात कर लेना चाहिये, जिससे पाठकोको आशय समझने में सुविधा मिले। (१) 'सांख्य' व 'योग' वेदान्तष्टिसे दो मार्ग जिज्ञासुके लिये हैं, ज्ञानीके लिये नहीं; जैसे जो छत्तपर पहुँच गया उसके लिये सोपान नहीं रहते, सोपान उपीके लिये हैं जो छतपर पहुँचनेकी इच्छा रखता है। परन्तु तिलक मतके अनुसार ज्ञानके बाद भी दोनों मार्ग ज्ञानीके लिये शेष रहते है तथा दोनो मार्ग स्वतन्त्र है, एकको दुसरेकी अपेक्षा नहीं । ज्ञानी ज्ञानोत्तर मोक्ष प्राप्त करनेके लिये चाहे सांख्यमार्गसे जाय चाहे योगमार्गसे, तथापि सांख्यकी अपेक्षा योगमार्ग श्रेष्ठ है और ज्ञानीपर कर्तव्य शेष रहता है, ऐसा उनका कथन है। (२) वेदान्त-मतमेंदोनीमार्गजिज्ञासुके लिये मानकर निष्कामकर्मरूप 'योग' सेअन्तःकरणकी शुद्धि औरतत्पश्चात्ज्ञान (सांख्य) से मोक्ष माना है । वेदान्त-मतमें गीतोक्त सांख्यका'अर्थ'संन्यासआश्रम नहीं, किन्तु श्रवण, मनन व निदिध्यासनरूप प्रात्मानुसन्धान है। - तिलक मतमें 'सांख्य से निवृत्तिपक्ष और 'योग'से प्रवृत्तिपक्ष अभिप्राय है । तिलक मतमें प्रवृत्तिरूप चेष्टानोको ही 'कर्म मानकर निवृत्तिरूप चेष्टाओंका खण्डन किया है और निवृत्तिरूप - चेष्टायोंको कर्म, नहीं माना, जोकि वेदान्त व गीतासे विरुद्ध है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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