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________________ [आत्मविलास ही गार्हस्थ्य-धर्मका प्राण है, इसके यिना गाईरव्य-धर्म ऐमा ही है जैसे बिना प्रागका पुतला-- आतिथ्यं शिवपूजन प्रतिदिनं धन्यो गृहस्थाश्रमः (भत ४१) । अर्थान् वही गृहस्थाश्रम धन्य है, जिसमें प्रतिदिन अतिथिमकार घ शिवपूजन होता है । जिस आतिथ्य-धर्मके प्रभावस मोरध्वजादि नरेशोंने अन्यक्त परमात्माको व्यक्तरूपमे आकर्षण कर लिया और आप परम गतिके भागी हुए, ऐसे पवित्र धर्माङ्गमे अश्रद्धा उपलाना तो शान्तिके स्थानपर अशान्तिका ही धाद्वान करता है। इस प्रकार तिलक महोदयका यह उपदेश गृहस्थके लिये तो किसी प्रकार न इहलौकिक सुखका हेतु होसकता है और न पारलौकिक उन्नतिका साधन । यह तो गृहस्थके सम्बन्धमें चर्चा हुई, श्रय भिन्तुकके सम्यन्ध में सुनिये। अहकारकी मूलको समूल निकाल फेंफना तथा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' रूप समताभावका फेवल कथनमात्र ही नहीं किन्तु व्यवहारिक रूपसे उपार्जन करना, यही वेदान्तका एकमात्र प्रतिपाद्य विषय है। यही 'पैताल' की पहेलीका अन्तिम साध्य श्रौप यही परम पुण्य । धर्मफे जितने भी बङ्ग प्रत्यङ्ग है वे सभी साक्षात् अथया परम्परास इसी उद्देश्यकी पूर्तिम सहायक होनेसे धर्मरूप हैं। अधिकारीके लिये व्यवहारिकरूपसे 'वसुधैव कुटुम्बकम' (अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी ही हमारा कुटुम्ध है) यह भाष उपार्जन करने के लिये भिक्षावृति एक अद्वितिय जीता. जागता साधन है । यह अधिकारीके चितकी परम उदारताका परिचायक है और आत्मविकासका एक अनोखे रूपसे शिक्षा देनेवाला शिक्षक है। इससे अधिकारीके चित्तमें यह भाष कूट-कूट कर भरे जाते हैं कि 'हे । मन जिसमें तूने शरीर धारण किया वही
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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