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________________ [४५ .. साधारण धर्म १, दिलक महोदयने कर्मकी जो व्यापक व्याख्या की है और भूख, प्यास, श्वासोच्छास व क्षणभर जीवित रहना भी 'कर्म' में सम्मिलित किया है वह व्यापक दृष्टिसे तो हमें ह्रदयसे स्वीकार है। यगपि श्वामोच्लास हमारे मतमें 'कर्म' की व्याख्यामें नहीं श्राता, क्योकि श्वासोच्छास किसी भावको उत्पन्न नहीं करता। तथापि व्यापक दृष्टिको लेकर हम तो इससे आगे बढ़कर यह कहने के लिये उद्यत है कि केवल प्रवृत्तिरूप व्यापार ही 'कम' नी, किन्तु सम्पूर्ण निवृत्तिरूप व्यापार मी 'कर्म' है और कर्म का त्याग भी 'कम' है, क्योंकि यह सम्पूर्ण चेष्टाएँ मन-धुद्धिके साक्षात् परिणाम हैं और भावको उद्भव करनेवाले हैं । कर्मकी जिस व्यापक दृष्टिपर वे जा रहे हैं और श्वासोच्छासपर्यन्त चेष्ठाको 'कर्म' मानते हैं, उसे लेते हुए क्या तिलक महोदय यह कहनेका साहस करेंगे कि निवृत्तिरूप चेष्टा 'कर्म' नहीं ? चाहे वह निवृत्तिरूप चेष्टाएँ उनकी दृष्टिसे भली हो या पुरी, यह वात इसरी है, परन्तु हैं वे 'कर्म । और जब यह बात निश्चित हो चुकी सत्र तिलक महोदयका निवृत्ति को कर्महीन मानना और वासोच्छासकी भी बराबरी न देना, या तो हठ है या उनके विचागंको संकीर्णता। हाँ, यह बात अवश्य है कि 'कर्म' का अधिकारीके साथ घनिष्ट सम्बन्ध है, एक अधिकारीके शिये जो कम हो सकता है वही अन्य अधिकारी के लिये 'विकर्म । हस्यके लिये जो 'कर्म हो सकता है संन्यासीके लिये यह पिका और संन्यासी के लिये जो 'कर्म' है वह गृहस्थके लिये विक्रम होगा, इसमें सन्देह ही क्या है ? इसी प्रकार लोकसेवा कसी अधिकारीके लिये कर्मरूप हो सकती है तो इससे भिन्न अधिकारीक लिये वह विकर्म होगी। यदि विचारसे देखा जाय प्रत्येक चेष्टा जो स्वधर्मानुकल हो, चाहे निवृत्तिरूप हो अथवा वित्तिरूप, वह लोकमेवा व लोकसंग्रहरूप स्वतः सिद्ध होती है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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