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________________ साधारण धर्म ] : लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा । रजस्येतानि जायन्ते विवृद्ध भरतर्षभ ॥(अ. १४. १२.) अर्थ:-हे अर्जुन ! रजोगुणके बढ़नेपर लोभ, प्रवृत्तिका प्रारम्भ और कर्मोमे शमन न होनेवाली स्पृहा उत्पन्न होती है। सत्त्वगुणकी वृद्धि प्रकाश तथा ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, (गी. अ. १४ श्लो. ११) और तमोगुणकी वृद्धिमें श्रप्रकाश, प्रवृत्ति का अभाव, प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं (गी. अ. १४, १३) । इससे सिद्ध हुआ कि प्रवृत्तिका प्रवेश न सत्त्वगुणमे ही हैं और न तमोगुणमे, किन्तु तमोगुण व सत्त्वगुणके मध्यवर्ती रजोगुण में ही इसका प्रवेश है। अर्थात् रजोगुणकी उत्पत्तिले पूर्व भी प्रवृत्तिका अभाव है और रजोगुण-शमनके पश्चात् भी उसका अभाव है, केवल रजोगुणकी विद्यमानता मध्यवर्ती कालमे ही प्रवृत्ति है । जो वस्तु न आदिमे पाई जाय और न अन्तमे, उसको आदिसे होना कैसे कहा जा सकता है ? अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । ,अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।। (गी.अ. २,२८) अर्थ है भारत ! सर्व भूत-प्राणी अपनी उत्पत्तिसे पूर्व अव्यक्तरूप (अर्थात् इन्द्रियादिके अविषय निवृत्तरूप) है और अपने नाशके पश्चात् अव्यक्तरूप (निवृत्तरूप) ही रहते है, केवल मध्यकालमें ही व्यक्तरूप (प्रवृत्तरूप) भान होते है, फिर इस विषय मे रुदन कैसा ? आशय यह कि जो वस्तु केवल मध्यकालवी ही हो वह तो रज्जु-सपके समान भ्रमस्य ही है। इसी प्रकार । यह प्रवृत्ति भी आदि व अन्तके विना केवल मध्यकालवर्ती होने . 'से यथार्थ नहीं, मिथ्या ही है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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