SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६] [अात्मविलास 'ब्रह्म' है, उसके स्वरूपमें नो किसी प्रकार प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति का प्रवेश है नही, किन्तु वह तो प्रवृत्ति व निवृत्तिका मोक्षी, नित्यनिर्विकार, कूटस्थ व अचल है । किसी भी शासने उसके स्वरूपमें कोई विकार अङ्गीकार नहीं किया है, बल्कि गीता स्वयं उसके स्वरूपको 'अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते' ऐसा वर्णन करती है । अर्थात् यह आत्मा न इन्द्रियोंसे देखा जाता है, न मन करके चिन्तन किया जा सकता है, ऐसा यह विकाररहित कहा गया है । तथा गीता, २ श्लोक २० से २४ में भी प्रया ही वर्णन किया गया है। हाँ, प्रवृत्ति व निवृत्तिका प्रवेश प्रकृति के राज्यमें है, सो प्रकृतिका वास्तविक स्वरूप भी तीनों गुणोंकी साम्यावस्थारूप निवृत्ति ही है। प्रकृतिके वास्तविक स्वरूपमें भी प्रवृत्तिका अङ्गीकार नहीं बन पडता, बल्कि वह तो शान्त और निवृत्तिरूप ही है। हाँ, जब जीवोंके कर्मसस्कार फलोन्मुख होते हैं तब अवश्य प्रकृतिकी माम्यावस्थामे क्षोभ होकर तीनो गुणोकी विषमतारूप विकृतिमें प्रवृत्ति उत्पन्न होती है जोकि नित्य नहीं नैमित्तिक है, अर्थात जीवोंके कर्मफलभोगके निमित्तसे ही है। इस विकृतिका भी स्वाभाविक स्रोत कर्मफलभोगरूप निमित्तको निवृत्त कर उस क्षोभनिवृत्तिद्वारा प्रकृतिकी वही साम्यावस्थारूप निवृत्तिमें निवृत्त होनेके लिये ही है। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि जीवके स्थूल, सूक्ष्म व कारण तीन शरीर माने गये हैं। सुषुप्तिश्रवस्था कारणशरीर है, स्वप्नअवस्था सूक्ष्मशरीर है, और जाग्रत्भवस्था स्थूलशरीरसे सम्बन्धित है। अब इनमेंसे कारणशरीर जो सुषुप्तिअवस्था है, उसमें नो किसी प्रकार किसी प्रवृत्तिका असम्भव ही है, बल्कि वह तो निवृत्तिरूप शान्त अवस्था ही है । नित्य ही यह प्रत्येक प्राणीके अनुभवगम्य है, इस लिये इसमें किसी प्रमाणकी अपेक्षा नहीं है । प्रत्येक प्राणी
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy