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________________ - [.२१ साधारण धर्म] सर्वभूतात्मभृतात्मा कुन्नपि न लिप्यते । अर्थात्:-'सर्वेपां भूतानां आत्मा भूतात्मा यस्यासौ. स सर्वभूतात्मभूतात्मा' अर्थ यह कि सब भूतोंकी आत्मा ही जिसकी अपनी आत्मा हो गई है, ऐसा पुरुष करके भी कमोंसे लेपायमान नहीं होता। उसकी दृष्टिमें तो सभी कुछ बनके समान हो जाता है, चाहे अज्ञानियोकी दृष्टिमें वह सब कुछ करता दिखलाई भी दे। ऐसी अवस्थामें उस अपरिच्छिन्नपर परिच्छिन्नरूप कर्तव्य कैसा? धन्य है ! इस ज्ञानकी विचित्र महिमाको बारम्बार कोटिशः धन्य है !! जिसके प्रभावसे इतना विशाल ब्रह्माण्ड भी दग्धरज्जुके समान रह जाता है। जैसे जली हुई रस्सी आकारमात्र दिखलाई तो पड़ती है परन्तु बन्धनके योग्य नही रहती, इसी प्रकार यह संसार जिसकी ज्ञान-दृष्टिमें छुई मुईके समान रह गया है, जहाँ दृष्टि पड़ी वहीं इन्द्रियग्राह्य आकार दृष्टिसे गिर जाते हैं और एकमात्र साक्षी चेतन ही इष्टिमें समा जाता है । फिर भला वनलाइये,उसकी दृष्टि में जब समार इस प्रकार आकारहोन और तुच्छ रह गया, तब ऐसी अवस्थामें उसके अनुभवमें 'जगत्व जगत्का''ईश्वर व ईश्वरका' और 'ईश्वरने हमको संसार के लिये रचा है इत्यादि शब्द व अर्थ कहाँस पाएंगे? हा यह भाव निष्काम-जिज्ञासुके तो हो सकते हैं, न कि ज्ञानीके। गीतामें कही एक पद भी ऐसा नहीं मिलता जिसमें 'ज्ञानी' शब्दके साथ 'कर्तव्य का प्रयोग किया गया हो, बल्कि ज्ञानीकी कर्तव्यमुक्तिमें तो यह स्पष्ट प्रमाण हैं: यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । प्रात्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ।।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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