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________________ [१७ साधारण धर्म] स्वार्थसे आगे बढ़कर कुटुम्ब सेवा, जातीय-सेवा, देश-सेवा आदिके रूपमें आत्मविकासके विस्तारका उत्तम मार्ग है, जिमकी चर्चा 'पुण्य-पापकी व्याख्या में विस्तारसं की जा चुकी है। यह वो रजोगुणको शुभ प्रवृत्तिद्वारा निकालकर निवृत्ति में आनेका आवश्यक माधन है। परन्तु 'यही फल है, इससे आगे और कुछ है ही नहीं यह वेदान्तको स्वीकार नहीं। वेदान्त फहता है, इसमेंसे होकर गुजरना तो पवित्र है परन्तु यही ढेरे न डाल दो । साधनको ही फल न मान लो, मजिल इससे आगे है इस लिये आगे बढ़नेका भी ध्यान रखो । और न यही हमारा प्राशय है कि ज्ञानी लोककार्यमें प्रवृत्त होता ही नहीं, बल्कि ऐसे महापुरुषोंद्वारा तो, जैसा नीतिमें रचा गया है, अनायास व स्वाभाविक बहुत कुछ लोककार्य हो सकता है। जिस प्रकार बचा पालने पड़ा हुआ स्वाभाविक अपने अङ्गको हिलाता है, अथवा वृद्ध पुरुष स्वाभाविक अपने होठोंको चबाता है, परन्तु किसी निमित्तसे नहीं, इसी प्रकार ऐसे पुरुषोंद्वारा बहुत कुछ कार्य सम्पादन हो जाता है, परन्तु किसी कर्तव्यरूप निमित्तसे नही । यहाँ पर प्रश्न ज्ञानीके साथ कर्तव्यका है। . तिलक महोदयने गीतारहस्यके इसी प्रकरणमें कहा है कि स्वामी शङ्कराचार्यका यह सिद्धान्त है कि ज्ञानोत्तर संन्यास लिये विना मोक्ष नहीं मिलता । तिलक महोदयके यह वचन सर्वथा प्रमाणशून्य हैं । शङ्कर मतमें ज्ञानोत्तर साक्षात्कारवान ज्ञानी पर किसी प्रकार ग्रहण-त्याग, योग-सांख्य, विधि-निषेध, प्रवृत्ति निवृत्ति कर्तव्य नहीं हैं, वह तो सब प्रकार द्वन्द्वातीत होता है। बल्कि वेदान्त तो यह कहता है: कृष्णो भोगी शुकस्त्यागी नृपो जनकराघवौ । , वसिष्ठः कर्मकता च पन्चैते ज्ञानिनः समाः ।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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