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________________ साधारण धर्म] किसी मनुष्यको बन्धन करना 'कर्तव्य' कहलाता है। साथ ही शाख व राजनीति “उस आजाभनके परिणाममें किसी प्रकार के प्रत्यवाय, प्रायश्चित तथा दण्ड श्रादिका भी उस प्राजाके साथ-साथ विधान करते है जिससे वह व्यवहारमें बाती रहे । परन्तु जिस आज्ञाके साथ किसी प्रकारके प्रत्यवाय आदिका विधान नहीं उसके व्यवहारमे पानेकी सम्भावना भी नहीं और तब वह 'कर्तव्य भी नहीं कही जा सकती। तिलक महोदयने ज्ञानी के लिये मृत्युपर्यन्त लोकसंग्रहके निमित्त कर्मकी कर्तव्यता तो बनाई है, किन्तु उसके साथ ही कर्तव्यच्युतिके प्रतिकारमे किसी प्रमाणसे प्रत्यवाय व प्रायश्चितका विधान नहीं किया। ऐसे विधानके विना न वह कार्यकारी ही हो सकती है और न 'कर्तव्य ही रहती है, क्योकि वह अपने पालनके लिये कर्ताको किसी प्रकार बन्धन नहीं करती। तिलक- महोदयने अपने प्रत्य में मोक्षका कोई स्पष्ट स्वरूप वर्णन नहीं किया और न ज्ञानी का कोई स्पष्ट लक्षण ही किया है, जिससे यह सष्ट होता कि झानी मोक्षमार्गमे ज्ञान प्राप्त करके' किस सोपान पर है और इस कर्तव्यद्वारा 'उसको किस त्रुटिको पूरा करना है, क्योंकि बिना ही किसी उद्देश्यके तो आँखें धन्द किये अन्धेवाली लकड़ी हाँके जाना कोई बुद्धिमत्ता नहीं हो सकती। यह बात तो निर्विवाद है कि कर्ता बिना कर्तव्य नहीं हो सकता, अर्थात् मैं कर्मका कर्ता हूँ' प्रथम यह भाव जब कर्ताकी बुद्धिमें दृढ़, हो तब उसके उपरान्त ही 'यह मुझ पर कर्तव्य है और यह कर्तव्य नहीं' इस रूपसे विधि व निषेध दोनो उसकी गर्दन पर सवार होते हैं। दूसरे, लोकसेवा कर्तव्य तभी हो सकती है, जबकि 'संसारके प्रति सत्यत्व व स्थिरत्वबुद्धि बढ़ हो। रज्जु भुजेंडके समान संसारके प्रति कल्पित बुद्धि धार कर तो कर्तव्य बुद्धि
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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