SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधारण धर्म ] क्लेशकी वृद्धि ही उसका फल हो सकता था, ठीक, इसी प्रकार श्रुति भगवती कहती है कि आत्मरूप ब्रह्म जो निकटसे निकट है, मन इन्द्रिय प्रादिसे भी जो निकटतर है, जो मनका भी मन, आँखकी भी आँख और श्रोत्रका भी श्रोत्र है, अर्थात् जिसके बिना न मनका मननभाव रहता है, न आँख देख सकती है, न श्रोत्र श्रवण कर सकता है और जो मन-ख-श्रोत्र सबमें विद्यमान और सबका साक्षी है, उसको किस क्रिया और किस कर्मसे जाना जाय या प्राप्त किया जाय ? यथाः- 'येनेदं सर्वे विजानाति तं केन विजानीयाद् विज्ञातारमरे केन विजानीयाद ?' (इ. उप. २-४-१४). ___ अर्थ:-जिसके द्वारा यह सब कुछ जाना जाता है, वह आप किसके द्वारा जाना जाय ? अरे। सबके जाननेवालेको किस शक्तिमे जान सकते हैं ? :: - इसी लिये अति भगवती सर्वाधिष्ठान उस सूक्ष्म वस्तुकी प्राप्ति के लिये किसी कर्मको साधन न बता 'ज्ञानादेव तु कैवल्यम्। केवल ज्ञानको ही साधन निरूपणं करती है। मलिन - दर्पणमें अपना मुंह देखनेके लिये मार्जनद्वारा मलनिवृत्तिमें तो यद्यपि कर्गकी अपेक्षा है, परन्तु मलनिवृत्त हो जाने पर मुंह देखनेके लिये तो फिर कोई कर्म अपेक्षित नहीं। इसी प्रकार स्वार्थ, श्रासक्ति, कामना एवं वासनादि मल हृदयरूपी दुर्पणसे दूर करनेके लिये तो यद्यपि कर्म, अपेक्षित है, परन्तु इन दोषोके निवृत्त होजाने पर हृदयदेशमें ही स्थित वस्तुके प्राप्त करने के लिये तो केवल ज्ञान ही अपेक्षित है। इसी लिये कहा गया है - - .
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy