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________________ श्रामविलास ] के द्वारा ग्रसी आती है । यही अवस्था इन महाशयोंकी होती है कि संसाररूपी पाजके भयसे अन्तर्मुख होनेके लिये जाते हैं, परन्तु वैराग्यके प्रभाव और विक्षेपके सद्भावसे उनको भीतर अन्धकार ही प्रतीत होता है, ठहर नहीं सकते और तत्काल बाहर निकल कर संसाररूपी वाजद्वारा फिर पास कर लिये जाते हैं। मन का स्वभाव है कि निरालम्ब तो यह रह नहीं सकता, अव विक्षेप और आवरण हृदयमे भरपूर रहने के कारण इसका अन्तर्मुखी होना तो असम्भव है, उधर तो इसका आकर्षण हो नहीं सकता, लाचार कुटुम्बकी आसक्ति व घरेलुप्रवृत्ति जिससे थोड़ा बहुत छुटकारा मिला था, वह फिर दृढ़ हो जाती है। अब इससे निवृत्त होना दुर्लभ है, क्योंकि आगे बढ़नेका मार्ग बन्द हो चुका है और हृदयरूपी लोहा ठण्डा पड़ चुका है, इसलिये शब्दरूपी चोटोंको भी नहीं सहार सकता। सारांश, अनधिकार चर्चामें दुःख ही दुःख है। 'इतो नष्टस्ततो भ्रष्ट' का लेखा पूरा होकर ही रहता है। पूर्वपक्षीः वाहजी वाह ! यह वो तुमने विचित्र जाल पूर्वपक्षीकी पका और | फैलाया है इसका तो कहीं अन्त ही उसका समाधान नहीं आता। प्रथम तो कलियुगमें जीवन ही अल्प है, दैवयोगसे पूरा जीवन भी मिल जाय तो भी सारे जीवनमें तुम्हारे वैतालकी ये सव भेटे तो पूरी होना असम्भव ही है। किसीको भी यह आशा नहीं हो सकती कि वह अपना यह सब काम इसी जीवनमें पूरा कर जायगा और जब यह आशा ही नहीं तब इस मार्गमे कदम उठाना ही कठिन होगा। 'न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। मायाका राज्य विलक्षण है, जीवके कर्म-संस्कार अनन्त जन्मोंके अनन्त हैं। फिर यह भी कोई विश्वास नहीं किया जा सकता कि भावीजन्ममें मनुष्ययोनिकी ही प्राप्ति होगी और जितना कुछ अब
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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