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________________ आत्मविलास ] [२५६ को सहार ही न सकेगा, बल्कि पात्रके फटजानेके कारण विरोचनके समान देहात्मवादी बनकर निकलेगा और अपने आचरणोंसे संसारको श्मसान बना देगा। यदि श्रोता कुछ ऊँची कोटिका है तो पात्र फटनेकी तो यद्यपि सम्भावना नहीं है, तथापि वह इस दुधको ठीक-ठीक पचा न सकेगा और उसे मानसिक अजीर्ण : Mental Dyspepsia)का रोग निकल पड़ेगा। इस प्रकार वह अपने मार्गका निरोध कर घेठेगा, न भोगका ही अधिकारी होगा और न मोक्षका ही। ऐसे पात्र में दी हुई इस ब्रह्मविद्याकी वही गति होगी जो पोडशवर्षकी यौवनवती कन्याकी एक नपुसकके हाथमें होती है, जिसको न भोगे ही बनता है न छोडे ही सरता है। इसी प्रकार वहन आगे ही बढ़ सकेगा और न पोछे ही हट सकेगा। आगे तो बढ़े कैस १ आगे तो तभी बढ़ सकता था जब कि हमारे इस मतवाले वीर पुरुपके समान हथेलीपर सिर रखकर मैदान में उतर पड़ता। यह तो घर है प्रेमका, खालाका घर नाहिं । शीश उतारे भुई धरे, तब पैठे घर माहिं ।। ' शीश उतारे मई धरे, ता पर राखे पॉच । ' दास कबोरा यों कहे, ऐसा होय तो श्राव ।। , और पीछे भी हटे कैसे ? भला उपासना आदिमे प्रवृत्त कैसे हो? वेदान्तके श्रवणमानसे ईश्वरको ही कल्पित सिद्ध कर बैठे। अजी | साकार-निराकारका तो झगड़ा ही नहीं रहा, साकार निराकारका झगड़ा तो तब होता जब कि ईश्वरकी हस्तो मानी होती । यहाँ तो ईश्वरपर ही हाथ साफ किये बैठे हैं। यह तो सॉप-छळू दरवाली गति हो गई, न खाये ही वनता है न छोड़े ही सरता है । अरे वाया ! आखिर कोई रास्ता तो खुलना
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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