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________________ आत्मविलास ] [ २५४ मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी। विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥१०॥ अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥११॥ अर्थ:-अपनी श्रेष्ठताके अभिमानका अभाव, दम्माचरण का अभाव, प्राणिमात्रको किसी प्रकार भी शरीर-मन-वाणीसे न सताना, क्षमा (अथात् किसीके अवगुणोंको देखकर उसके प्रति दोषदृष्टि न करना तथा अपने प्रति किप्तीने अपराध किया हो तो उसको अपने चित्तमें धारण न करना और चित्तसे तत्काल इसी प्रकार बहा देना जिस प्रकार गङ्गा हणोंको वहा ले जानेमें विलम्ब नहीं करती), मन-वाणी व खान-पानादि में पूरो सरलता, श्रद्वा-मतिसहित गुरुको सेवा, आन्तर-वाह शौच, अन्तःकरणको स्थिरता, मन-इन्द्रियादिका दमन, इन्द्रियोंके सम्पूर्ण भोगोंमें,चाहे वे इस लोकके हो वा परलोकके, आसक्तिका अभाव, 'मैंपन' का त्याग, जन्म-मृत्यु और बुढ़ापारूपी रोगोमें दुःख व दोपोंका वारम्बार विचार करना और इनके रोगसे रोगी होना; धन, पुत्र, खीव घर आदिमें आसक्ति और ममताका न होना, प्रियअप्रियकी प्राप्तिमे सदा ही समचित्त अर्थात् क्षोभरहित रहना, मुझ परमेश्वरमें अनन्ययोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्त व शुद्ध देशमें रहनेका स्वभाव, जनसमुदायमें टिकनेसे अरुचि होना, अध्यात्म-ज्ञान थोत वेदान्त-शास्त्रमे नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्माको सर्वत्र देखना, यह सब तो ज्ञानका साधन होनेसे ज्ञानरूप है और जो इससे विपरीत है वह अज्ञान है, ऐसा कहा गया है। ऐसा रंगादिल, त्रिविध एषणाओंसे छूटा हुआ, शमदमादिसम्पन्न, वैराग्यवान् तत्त्वजिज्ञासु ही वेदान्तश्रवणका अधिकारी
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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