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________________ २४५7 [साधारण धर्म मैं परदेशी दुःखरिया, दुःखसागर देखत डरिया । तुझ वाझ न साथी कोई, सब निज मतलब दे होई ॥१॥ मैं जिस दर जाय खलोयाँ, सब दीन दुःखो ही जोवाँ । मेरे घर विच चोर उचक्के, केई दुश्मन लागे पक्के ॥ २॥ घर चोर न फड़िया जाई, मेरी तेरे पास दुहाई। नित नैन रुप बल धा, उठ कान धनि घिर जावें ॥३॥ घ्राण गंधमें धस रह्यो, चित चेते परनार । , मन दलाल होय सपनको, अह निशि करे विकार ।। रसना रस गीधी मोरी, त्वचा नीच स्पर्श घसोरी। मोहे काम क्रोध दुःख दीना, मेरो सर्वस्व हर लीना ॥१॥ मैं मोह की फाँसी फाथा, मेरे निकसत पैर न होथा। मोहि मोह लियादिल मेरा, अहं अहङ्कार भया अंधेरा ॥२॥ लोभने कियो पखेरो, तृष्णाने पायो धेरो । मैं दीन दुःखी तव टेका, तुझ वाम न सहुरा पेका । ३॥ १. मेग निजालय जो आत्म-स्वरूप है उससे बिछुड़कर मैं इस संसारमें परदेशी हूँ। २. संसार । ३. बिना । १, खड़ा होता हूँ। (५) इन्द्रियाँ, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इत्यादि । (६) फंसा हुआ। ७ सुसगल । ८.पीहर भाषार्थ यह है कि जैसे चोरोंकी पार्टी धनीके हाथपाँव बाँधकर मधेग करके और चारों ओरसे घेरकर उसके धनको हरलेता है, इसी प्रकार मोहने मुझे बाँध दिया है, अहंकारने अंधेरा कर दिया है जिससे मुझे कुछ दोस्त नहीं पड़ता, लोमने खलबली मचा दी है जिससे मैं किसीको सहायताके लिये बुला नहीं सकता और तष्णाने चारों
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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