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________________ श्रामविलास] [ २४२ आम्रफल पककर अपने आप डालीसे छूट जाता है और मिठास दे जाता है । यद्यपि विषयप्रवृत्ति तो विपयी पुरुपोंकी भी कालप्रभाव से भोग-सामर्थ्य न रहने के कारण स्वाभाविक ही निवृत्त हो जाती है, परन्तु उनका विपयोंमे राग निवृत्त नहीं होता, किन्तु - 'भोगान भुक्ता वयमेव भुत्ता तृष्णाननीयो वयमेय जी।' 'भोगोंका भोग पूरा नहीं हुआ बल्कि हमारा ही भोग हो गया, तृष्णा जीर्ण नहीं हुई परन्तु हम ही जीर्ण होगए'का हिसाव बना रहता है। इसके विपरीत इस वैराग्यवान् महात्माका तो राग भी निवृत्त होकर विपयोंके प्रति दोपदृष्टि उपस्थित हो गई है और इस दोपदृष्टिके सद्भावसे इसकी वाहरके शत्रु-मित्रकी भावना दूर होकर इसने अपने भीतर अपनेको ही अपना शत्रुमित्र जाना है और इन वचनोंको भली-भाँति सार्थक किया है : उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। वन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मनाजितः। अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रु वत् ।। (गी.६५,६) अर्थः मनुष्यको चाहिये कि अपने-आपे करके आपेका उद्धार करे और अपने प्रापेको गिरने न दे, क्योंकि अपना आपा (मन ही अपना मित्र है और आपा (मन)ही अपना शत्रु । उसका आपा तो अपना बन्धु है जिसने आपे करके श्रापा जीत लिया, (अर्थात् अपने मन-इन्द्रियोंको अपने अधीन कर लिया) और (जिसने इनको मूर्खताके कारण नहीं जीता ) उसका वह आपा ही शत्रुके सदृश शत्रुतामे वर्तता है। वाय विषयोंमें रागवुद्धिके कारण ही वाह्य शत्रु-मित्रकी भावना होनी स्वाभाविक है, यथा:
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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