SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२५ [साधारण धमे अर्थ ..जो तेन सूर्यमे स्थित हुआ अखिल ब्रह्माण्डको प्रकाशित कर रही है और चन्द्रमा तथा अग्निमें जो तेज है, वह तेज तू मेरा ही जान । . यही सूर्यमूर्तिमें कारण-ब्रह्मम्प सामग्री है। गणानां ईश: गणेशः । गणानां पति गणपति । अर्थात् गणेशमूर्तिमें कारण- गणोंका ईश्वर, गणोंका स्वामी, गणेश प्रशासनिर्गणभाव | गणपत्ति' शब्दका अर्थ है । गण नाम .. .-समूहका है। यहाँ शिवगण ही केवल गणरूपसे ग्रहण करनेयोग्य नहीं, किन्तु समष्टि मन-इन्द्रियादि अध्यात्मगण, उन मन-इन्द्रियोंके सञ्चालक देवतारूप अधिदैवगण और श्रीकाशादि पञ्चतत्त्वरूप अधिभूतगण भी 'गण' शब्दः का अर्थ ग्रहण करनेयोग्य है । इन समष्टि अध्यात्म, अधिदेव व अधिभूत गणोका स्वामी ही 'गणेश' शब्दका भावार्थ है। ऐसा सब गणोंका स्वामी 'एकमेवाद्वितीयम्' सत्त्वगुणकी मूर्ति और केवल ठोस सत्त्वगुण ही गणेशरूपसे उपास्य है । गणेशमूर्तिमें सव अङ्ग सत्त्वगुणके ही परिचायक हैं । यह अटल सिद्धान्त है कि जहॉ रजोगुण उत्पन्न होता है वहीं सव विघ्न आन उपस्थित होते हैं । जब-जब अहंकर्तृत्व-अभिमान आता है तव-तव ही चञ्चलता, मत्सरता, दर्प, राग, द्वीप और विफलतादि सब विनसामग्री अपने-अपने स्थानपर आ विराजती हैं और जब उनका नाशक सत्वगुणरूप गणेश था जाता है तव सव विनोंका अभाव हो जाता है। अर्थात् जब ये भाव हृदयमें समा जाते हैं कि 'सर्व कर्ता-धर्ता वह अन्तर्यामीदेव ही है, बुद्धिमें, वैठकर वही निश्चय कर रहा है, मनमें विराजकर वही. सङ्कल्प कर रहा है, फिर ज्ञान-इन्द्रियोंके साथ मिलकर कर्मेन्द्रियोंको गति वहीं दे रहा है, यहॉतक कि प्रत्येक नाड़ीको वही चला रहा है, हमारा अपना कर्तृत्व तो आटेमें नमकके मान भी नहीं।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy