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________________ २२१] [ साधारण धर्म तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।। (ईशावास्य) अर्थात् एकत्व देखनेवालके लिये क्या मोह और कैसा शोक ? दुःख सदैव किसी न किसी इच्छा करके ही होता है और इच्छा तय होती है जव इच्छित वस्तुको अपनेसे भिन्न जाना जाय । परन्तु इस शिवस्वरूपने तो एकत्व-दृष्टि (अभेद-दृष्टि) से सवको अपना आत्मा ही जाना है, इसलिये इसको कोई इच्छा नहीं और जब कुछ इच्छा ही नहीं तव दु.ख किस बातका ? यह शिवस्वरूप दिगम्बर है, सव दिशाएँ ही इसके वस्त्र हैं। अर्थात् यह किसी दिशाकी हदमें नहीं आ मकता, सब दिशाओसे परे हैं, इसलिये यह सर्वव्यापी देशपरिच्छेदसे रहित है। इस देव का वैराग्य ही भूपण है, जिसने नागेन्द्रका हार गले में पहना हुआ है। नागेन्द्र साक्षात् मृत्युस्वरूप है जिसको इसने अपने कांठसे लगाया हुआ है, अर्थात इसने काल को अपने अधीन कर लिया है और कालसे इसको कोई भय नहीं है। यह कालातीत है, इस लिये कालपरिच्छेदसे भी रहित है। इसने शवमस्मका विलेपन किया है, रुएडोको माला धारण किये हुऐ हैं और श्मसाननिवासी है। यह सब तोत्र वैराग्यके सूचक हैं। प्राशय यह कि जिसने संसारसम्बन्धी रागको तीव्रतर वैराग्यद्वारा भस्म किया है और उस भस्मको अपने शरीरके साथ लेपन किया है अर्थात् उसे अपनाया है, वही इस शिवस्वरूपके दर्शनका अधिकारी हो सकता है। इसके चार हाथ हैं, जो उसकी अनन्त शक्तिके सूचक हैं। पार्वती इमके वामागमे विराजमान है, अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति व लयकारणी महामाया उसके वामागमें विराज रही हैं। वामाझमें विराजनेका भाव यह है कि उसके कटाक्षमात्रसे ही माया सब चेट कर रही है अर्थात् यह सब उसके बाएँ हाथका खेल है। इसके हाथोंमे त्रिशूल,
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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