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________________ २०१] [साधारण धर्म तोल देता है, अथवा गज अपने समान लम्बे वस्त्रको माप देता है, उसी प्रकार मूर्तिके समान भारी और मूर्ति जैसा लम्बाचौड़ा यदि इष्टदेवका प्रमाण किया जाय तो भारी भूल होगी। इस प्रमाणकी विधि उपयुक्त माप-तोलसे विलक्षण है। इसके प्रमाणकी रीति यह है कि शास्त्रकी विधि, गुरुके वचन और अपने हृदयके आस्तिकतापूर्ण श्रद्धायुक्त भावद्वारा मूर्तिम ईश्वरका अस्तित्व निश्चय किया जाय । ध्यानमें विधि, विश्वास और इच्छा तीनों ही मुख्य हैं और प्रतिमापूजन ध्यानरूप ही है । गुरु-शाखके आज्ञारूप व कर्तव्यतासूचक वचनोंको 'विधि' कहते हैं, अपने आस्तिकता व श्रद्धापूर्ण भावका नाम 'विश्वास' है और अन्तःकरणकी कामनारुप रजोगुणी-वृत्तीको 'इच्छा' कहा जाता है। अर्थात् गुरु-शास्त्रका विधिरूप वचन भी हो, उन रचनोंमें अपना आस्तिकतापूर्ण विश्वास भी हो और अन्तःकरणमें यह कामना भी हो कि हमारा चित्त ध्यानमें जुड़े। इस प्रकार ध्यानके लिये इन तीनोंका होना आवश्यक है । यदि विधि व विश्वास है परन्तु इच्छा नहीं, तब भी ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती, विश्वास व इच्छा है परन्तु विधि नहीं तथा विधि व इच्छा है परन्तु विश्वास नहीं, तब भी कार्यसिद्धि नहीं हो सकती। इन तीनोंमेंसे एक भी न हो तो ध्यानकी सिद्धि नहीं होती, ध्यानके लिये तीनों ही चाहिये। इस प्रकार अभ्यासके बलसे जवकि भूविदेशमें ईश्वर का अस्तित्व निश्चय किया गया तो इन प्रमाणसे 'जो इसमें है वह सबमें है' सत्र ही ईश्वरदर्शन किया जाय और पञ्चतत्त्वरचित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही भिन्न-भिन्न रूपोंमे ईश्वरकी झाँकी करा सके, यही इस प्रमाणकी विधि और लक्ष्य है। न यह कि सर्वत्र ईश्वरका अभाव करके केवल प्रतिमादेशमें ही उसे सङ्कुचित कर दिया जाय । नन्हेले गोलमटोल शालिग्राममें
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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