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________________ १६१] [साधारण धर्म कीर्तन होता है वहाँ नामी भी आ जाता है । 'नाम' वरूप दोनों उस ईश्वरकी उपाधि हैं जोकि अनिर्वचनीय व अनादि है। अर्थात् ईश्वरके स्वरूपको जोकि वेनाम व वेरूप है, बोधन करके 'नाम' व 'रूप' उससे भिन्न रहते हैं, इसीसे ये ईश्वरकी उपाधि हैं। इस प्रकार अनिवचनीय ईश्वर नाम व रूपके द्वारा ही सुन्दर बुद्धिसे जाननेमे आता है ॥१॥ यो बड़ लोट कहत अपराधू । सुनि गुणभेद समुझहहिं साधू || देखिये रूप नाम आधीना । रूप ज्ञान नहीं नाम विहीना ॥२॥ 'नाम' और 'रूप' इन दोनोंमे बड़ा और छोटा कौन है ? ऐसा कहना अपराध है । गुणोंके भेद को सुनकर साधुजन श्राप ही इनकी वड़ाई-छुटाईको समझ लेंगे। रूप नामके अधान देखने में आता है, क्योंकि नाम बिना रूपका ज्ञान नहीं हो सकता ॥२॥ . रूप विशेष नाम विनु जाने । करतलगत न परहिं पहिचाने ।। सुमिरिये नाम रूप विनु देखे । आवत हृदय सनेह विशेपे ॥३॥ ' नाम जाने विना विशेषरूप हथेलीमे भी श्रा जाय तो भी 'पहिचाना नहीं जाता और रूप देखे बिना ही यदि नामका स्मरण किया जाय तो हृदयमे विशेष प्रेम उत्पन्न होता है ।शा
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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