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________________ श्रात्मविलास] [ १८२ अर्थ.-जिसका आहार-विहार नियमित है, कर्मोंमें चेष्टा नियमित है तथा जिसका सोना-जागनारूप क्रिया नियमित है, उसीको यह दुःखनाशक योग प्राप्त होता है। योग शब्दका अर्थ जुड़ना है, जिन चेष्टाओं द्वारा मन भगवानसे जुड़े वही 'योग' शब्दवाच्य हैं । कर्म-योग, भक्ति-योग, ज्ञान-योग भेदसे इसका भेद किया गया है। इस प्रकार आहार-विहार नियमित रखकर ऐसे सद्ग्रन्थों का अभ्यास करना जिनमे भगवद्गुणानुवाद अथवा भगवद्भक्तोंके चरित्रोंका निरूपण किया गया हो तथा ऐसे सत्पुरुषों का मग करना जो सत्यप्रिय हो, किसी प्रकार मत-मतान्तर तथा पन्थ-पन्थाईका आग्रह न रखते हो, स्वयं जीवनकी उपयुक्त श्रेणियोंमेसे उल्लङ्घन किये हुए हों और स्वानुभवसे अधिकारीके अधिकारानुसार निरूपण कर सकते हों। यही उपासनाकी श्रवणरूप द्वितीय श्रेणी है। जिस प्रकार शरीरकी पुष्टिके लिये प्रतिदिन अन्नाटिका सेवन जरूरी है, इसी प्रकार भक्तिकी पुष्टिके लिये मनको नित्य ही शुद्ध भाचोका भोजन मिलना जरूरी है, जोकि भावुक पुरुपोंके सत्सङ्ग और शास्त्रश्रवणद्वारा ही प्राप्त हो सकता है। भक्ति स्वतन्त्र सकल सुख खानी । विनु सत्सङ्ग न पाहिं प्राणी ॥ पुण्य पुञ्ज विनु मिलहिं न सन्ता । सत्संगति संसृति करि अन्ता ॥ जलवर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ।।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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