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________________ [ १६० श्रामविलास ] 'मेरे स्वामी तेरी यह वॉकी अदा है' । हाय ! तू वटा मतवाला है । जहाँ तुझसे ऑखें चार हुई कि झट लोक-वेदकी बेड़ियाँ इसी प्रकार कट जाती हैं, जैसे कसके कारागारमें वसुदेव-देवको की । सव वेद व धर्मका फल तू ही है । तुझको तेरी शपथ है ! सत्य बत्ता, तू क्या वला है । तेरा स्वरूप क्या है ? तू कहाँ रहता है ? और तेरा क्या प्रयोजन है। इसपर उसने जो उत्तर दिया यह विजनीके समान कडक गया और हृदय शीतल हो गया। न मैं कहीं सातवें आकाशपर हूँ न सात समुद्रों पार, न मृगनयनोंके नयनोंमें मेरा निवास है न प्रेमका उत्तर शब्द-स्पर्शादि विपयोमे ही मैं अटका हुआ है। वल्कि मैं तो सर्व प्राणियोंके अपने-अपने हृदयोंमे ही घर किये बैठा हूँ, परन्तु कृपणचित्त मुझको वहाँ न पाकर वाह्य पदाथमि मेरी खोज करते हुए भटकते फिरते हैं। जिस प्रकार मृग अपनी नाभिमें स्थित कस्तूरीकी गन्धको अपने अन्दर न देख उस गन्धकी तलाशमे मतवाला हुआ वन-वन भटकता फिरता है, ठीक इसी प्रकार वे पशु जीव भी मुझको अपने भीतर न देख वाहर मेरे लिये भटकते फिरते हैं । परन्तु अन्त स्थित वस्तु तो बाह्य प्राप्त कैसे हो सकती है ? आखिर मुझसे वञ्चित रहकर दीनके दीन ही रहते हैं। फिरो हो रूये जमीं पे यारो ! तलाश मेरी में मारे मारे अमल करो तुम दिलों में देखो, मैं नहने अकरख सुना रहा हूँ इस विषयमें उनकी अवस्था ठीक उस बुढ़ियाके समान है जिसने अन्धेरी रातमें अपनी एक सूई घरके भीवर गमा दी थी और उसकी खोज गहर सड़कपर लालटेनकी रोशनीमें १. पृथ्वीतल । २ कण्ठमे मो अधिक समीप शब्द।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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