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________________ आत्मविलास] [ १५० कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ (गी. अ. २, ४७) अर्थ. तेरा अधिकार कर्म करनेमें ही है, फलमें कभी नहीं (किन्तु फलमे तो मेरा ही अधिकार है) और तू कर्मफलको वासना (गवमात्र) रखनेवाला भी न हो। (इस विचारसे कि जव कर्मफलकी इच्छा ही न हो तो कमें करनेसे भी क्या प्रयोजन १) तेरी फर्म न करनेमें भी प्रीति न हो (किन्तु तुझे कर्म तो करना ही चाहिये। इससे यह स्पष्ट हुआ कि कतत्व-अहंकार और कोफलकी इच्छा ही मनुष्यमे थकान पैदा करनेवाले हैं। इस प्रकार जब कर्मके लिये ही कर्म किया जाय, तव फल तो कहीं जा ही नहीं सकता। क्रियाको प्रतिक्रिया तो ईश्वरराज्यमें नष्ट हो ही नहीं सकती। कर्ममें फल तो इसी प्रकार छिपा हुआ है, जैसे नन्हेंसेवट-वीजमें महान वटवृक्ष घड़ी करके (तह करके ) रखा हुआ है। नन्हें से वट-बीजको भूमिमें दवानेकी ही जरूरत है फिर डाली, पत्ते, फूल, फल तो अपने-अपने समयपर आप हो उससे निकल आयेंगे, इसके लिये वो चिन्ता की कोई जरूरत ही नहीं। इसी प्रकार कर्मरूपी वीज हृदय-क्षेत्र में जमानेकी देरी है, फिर उससे सब अल-प्रत्यङ्ग अपने आप देवी-नियमके अनुमार निकल पड़ेंगे। इस प्रकार जब कर्मका फल निश्चित है, तब उसके लिये चिन्तारूपी वेदना क्यों सहो जाय । इत्त चिन्तारूपी यम-यातनासे क्या प्रयोजन ? उल्टा नन्हेंसे बीजपर चिन्तारूपी भारी पत्थर रखकर उसको फलने फूलनेसे क्यों रोक दिया जाय ? वास्तवमे कर्म अपने स्वरूपसे रजोगुणी नहीं, किन्तु
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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