SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मविलास ] [ १४८ अपने परिच्छिन्न-अहंकारको उस सिंहामनपर ग्रामद कर देते हैं, तभी निर्विवाद रूपसे चारों ओरसे चिन्तागे हमारा स्वागत करती हैं और हमारा वातावरण दुःख व शोकमय बन जाता है । यदि उस देवको फिरसे उसकी अपनी गद्दी (हृदय सिंहासन) पर विराजमान कर दिया जाय और अपने परिच्छिन्नअहंकारको नीचे उतारकर उस देवका श्रानाकारी 'जी हुजूर' बना दिया जाय यथाःकुन्दन के हम डले है, जब चाहे तू गला ले। वाचर न हो तो हमको, ले आज श्राजमा ले ॥ जैसी तेरी खुशी हो, सब नाच तू नचा ले । सब छानबीन करले, हर तौर दिल जमा ले !! राजी हैं हम उसीमें, जिसमें तेरी रजा है । यहाँ भी वाह वाह है, और भी वाह वाह है ॥ तब ऐसो अवस्था में चिन्ताएँ एकदम कुँच कर जाती हैं और हमारा वातावरण शान्ति आनन्दसे भर जाता है। ऐसी अवस्थामें ही इच्छित पदार्थ अपने-आप इसी प्रकार हमारे पास दौड़े आते हैं जैसे भूखे बालक माताके पास दौडे जाते हैं। 'यह क्षुधिता वाला मातारं पयुपासते' जो पुरुष फलाशा धारण किये हुए हैं वे दरिद्री व दीन हैं, चाहे वे मायाद्वारा लनपति भी क्यो न हों । और जिस - - - - 1. निश्चय । २. परीक्षा करले। ३. खुशी।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy