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________________ आत्मविलास ] [१४४ अर्थः-कर्मका फल कपायों ( राग-द्वेपके संस्कारों) का पकाना ही है, जान ही परम गति है, कर्मसे कपाय पकनेपर फिर ज्ञानका श्राविर्भाव होता है। ___ कर्मद्वारा प्रकृतिकी निवृत्तिमुखीनता सिद्ध की गई। उपर्युक्त निष्काम कर्मका रहस्य | नीतिक अनुसार यह जिज्ञासु निपिद्ध - सकाम व शुभ-सकामकी कक्षाओंसे उत्तीर्ण होकर श्रव निष्काम कर्मकी - कदामे प्रविष्ट हुआ है। फलाशारूप इच्छा हो कर्ममें विप मिला हुआ था, जो अहकाररूपी दुःखको घृद्धि कर रहा था। प्रकृतिकी सहायतासे अव इस विपको इसने अपने हृदयसे निकाल फेंका है। जैसा कि पोछे स्पष्ट किया जा चुका है, 'अहंकारसे इच्छाकी उत्पत्ति होती है और इच्छासे अहंकारकी पुष्टि होती है। यही दुःख है। संसारसम्बन्धी इच्छाओंसे पल्ला छुडाकर जिस प्रकार वरफ हिमालयसे पिघलकर गंगारूपमें समुद्रकी ओर दौड़ती है, इसी प्रकार अव इमने अहंकारकी जड़ताको पिघलाकर इस अहंकारका प्रवाह ब्रह्मरूपी-समुद्रकी ओर चला दिया है। जैसे कोई ज्येष्ठ मासके मध्याह्नके धूपमें तपा हुआ सिरपर पोट का भार उठाये हुए पोटको नीचे फैककर वृक्षकी छाया में विश्राम करके सुखी होता है, इसी प्रकार यह जिज्ञासु सांसारिक इच्छाके भारसे मुक्त होकर कर्म करता हुआ भी कर्मरूपी मध्याह्नके तापसे फलाशात्यागरूपी वृक्षकी छायामें विश्राम पा रहा है। आशय यह कि कर्म तो अपने स्वरूपसे प्रारम्भ व परिणाममें दुःखरूप है ही और अपने सम्वन्धसे तापका ही हेतु है। कर्मके साथ यदि कुछ विश्राम मिलता है वो फलाशात्यागद्वारा ही मिल सकता है, इसीलिये कर्मको मध्याह्नके ताप से उपमा देकर फलाशात्यागकी घृक्षकी छायासे तुलना की गई है। संसारसम्बन्धी स्वार्थ अब इसका कोई नहीं रह गया,
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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