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________________ १४१] [ साधारण धर्म है इससे वह श्रेष्ठ है । इसीलिये तू शास्त्रविधिसे (अपनी प्रकृतिक अनुसार) नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्मको कर, क्योंकि कर्म न करनेसे कर्म करना श्रेष्ठ है, यहॉतक कि कर्म विना तेरा शरीरनिर्वाह भी सिद्ध न होगा। यद्यपि प्रकृतिके राजमें कर्म सर्वथा अनिवार्य है, तथापि कर्मद्वारा प्रकृतिकी | कर्मद्वारा प्रकृतिका स्वाभाविक स्रोत निवृत्तिमुखीनता निवृत्तिमुखीन ही है। प्राशय यह कि उद्भिज्जादि जड़ योनियोंसे लेकर, जो जीवभावके विकासका आरम्भिक स्थल है, स्वेदज, अण्डज, जरायुज योनियोंसे लंघकर मनुष्ययोनिकी प्रातिपर्यन्त जितनी भी चेष्टा व कर्म प्रकृतिद्वारा प्रकट होते है, उन सबके मूलमे वास्तव में त्याग ही विद्यमान है । जीवभावका मनुष्ययोनिमे विकास होने पर ब्रह्मभावको प्राप्तिपर्यन्त पामर, विषयी आदि कोटिमें भी यद्यपि स्थूलदृष्टिसे प्रतीत न होता हो तथापि प्रकृतिकी सर्व चेष्टाओं में केवल निवृत्तिरूप त्याग ही निहित है। ययाहि --- पापाण-उद्भिजादि जड़ योनियोंसे लेकर मनुष्य योनिकी प्राप्तिपर्यन्त क्रम-क्रमसे प्रत्येक योनिमें प्रकृतिद्वारा जड़ताको गला कर उनमे चेतना शक्ति सम्पादन की जाती है। पाषाणयोनि में जीवकी गाद-सुषुप्ति-अवस्था होतो है, उस जड़ताको पिघलाकर प्रकृविद्वारा उद्भिन्लयोनिमें क्षीण-सुपुमि-अवस्थाकी प्राप्ति की गई और प्रथम अन्नमयकोशका विकास किया गया । इस अवस्थासे जीवको ऊँचा उठाकर स्वेदज योनिमें गाद-स्वप्नअवस्थाका विकास हुआ और दूसरा प्राणमयकोशका प्रादुर्भाव हो आया । इससे आगे चलकर अएडजयोनिमें प्रकृतिद्वारा क्षीण-स्वप्न तथा तृतीय मनोमयकोशकी और जरायुज योनिमे केवल स्वप्न तथा चतुर्थ विज्ञानमय कोशको प्रकटता की गई। और मनुष्ययोनिमे जाग्रत-अवस्था तथा आनन्दमयकोशका
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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