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________________ [१२४ आत्मविलास ] से आचरणमे आने लगे । यही वास्तवमें शुभ-सकाम-कर्मकी अवधि है और यही परमार्थरूपी वृक्षका बीज है। विचारसागरके रचियता भीस्वामी निश्चलदासजीने कारको नामम्प से उपासनाका प्रकार वर्णन करके कैना उत्तम कहा है ? -- जो यह निर्गुण ध्यान न है तो, सगुण ईश कार मनको धाम ॥ । सगुण उपासन हूँ नहीं है तो करि निष्काम कर्म भज राम ॥ जो निष्काम कर्म ह नहीं होते. तो करिये शुभ कर्म सकाम ॥ जो सकाम कर्म हू नहीं होने, तो शठ बार बार मरि जाम ॥ अर्थात् शुभ-सकाम-कर्मके प्रवाहमें पड़ा हुआ भी यह जीव क्रम-क्रमसे ऊँचा उठता हुआ ब्रह्मरूपी समुद्रमें मिल जाने का जुम्मेवार है। यदि कमसे कम इतना भी मनुष्य न कर सके तो जीवन निष्फल ही है। 'दूसरोंके स्वार्थको उसी दृष्टिसे देखना जिस दृष्टिसे त्यागकी तीसरी भेटका | अपने स्वार्थको देखा जाय' इसका भावार्थ और उसका तात्पर्य यह है कि अपने संसर्गमें आनेफल। वालोंके स्वार्थोंका उतना ही ध्यान रखा जाय, जितना अपने निजी स्वार्थोंका रखा जाता है। अर्थात् यदि आप व्यापारी हैं तो अपने ग्राहकोंके स्वार्थीका, आप वैद्य हैं तो अपने रोगियोंके स्वार्थोंका, आप वकील हैं तो अपने मवकिलोंके स्वार्थोंका, आप दलाल है तो अपने दुकानदारोंके स्वार्थोंका, आप जागीरदार हैं तो अपने पिकारोंके स्वार्थोंका, आप
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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