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________________ ११७] . [साधारण धर्म पुत्र मदा दुख देत , पिन प्राति दुख एक । गर्भ समय दुख, जन्म दुख, मेरे तो दुख अनेक ॥२१. तजि तिय पूत जो धन चहै, ताके मुख में धूर । धन जोरन, रक्षा करन, खरच, नास, दुख मूर ॥३॥ (विचारसागर ५ तरङ्ग) ___ यह तो तुम्हारे इस लोकसम्बन्धी विषयोंकी अवस्था स्वर्गसम्बन्धी भोग्य | निम्म्पण की गई । अव स्वर्गादि विषय विषयों में सुखका जिनको तुमने मोक्षरूप जाना हुआ है, उनकी असम्भव । अवस्था सुन लो। स्वर्गादि भोग्य पदार्थ भी परिच्छिन्न होनेसे अनित्य व नाशरूप तो अपने स्वभावसे ही हैं, इसलिये क्षय व अतिशय दोषोंसे प्रसे हुए हैं। जबकि अनित्य व क्षयरूप सिद्ध हुए तो जैसा अभी निरूपण हुआ है वे अपने आदि उपार्जनकालमें भी दुखरूप हैं और नाशकालमें तो दारुण दुःखरूप हैं ही। कर्मभोग की पूंजी समाप्त होते ही वहाँ एक क्षणके लिये भी ठहरनेका अवकाश नहीं मिलता, यथा:ते.तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशाल क्षीणे पुण्ये मत्यलोक विशन्ति । एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ (गी. भ. ६ बलो. २१) अर्थः-वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं, इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मके शरण हुए और भोगों की कामनावाले मनुष्य बारम्बार आवागमनको प्राप्त होते हैं। __ अन्ततः वह स्वर्गसम्बन्धी भोग कालकी अवधिवाले हैं, फिर चाहे काल कितना ही दीर्घ क्यों न हो, नाशके भयसे
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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