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________________ १०५] [साधारण धर्म लक्ष्यको भेद सकोगे । ठीक, इसी प्रकार स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये भी स्वार्थकी तिलाञ्जलि देनी होगी, स्वार्थरूपी कमान ढीली छोड़नी पड़ेगी, तभी तुम सफलमनोरथ होगे । महाभारत के अन्तमें भगवान् वेदव्यासजीने कहा है: ऊर्ध्ववाहविरौम्येष न च कश्चिच्छृणोत्ति माम् । धर्मादर्थश्वकामश्च स धर्मः किं न सेव्यते ।। अर्थात् 'मैं ऊँची भुजा उठाकर चिल्लाता हूँ, परन्तु मेरी कोई नहीं सुनता कि धर्मसे हो अर्थको तथा कामकी सिद्धि हो सकती है, ऐसा धर्म क्यों नहीं सेवन किया जाता ? परन्तु यहाँ तो मामला ही दूसराहो रहा है। यहाँ तो पिटने-पिटानेका बाजार गरम है, फिर वैतालके सन्तोपका क्या प्रश्न? मान लो, विजलीके चमत्कारके समान तुमने किसी क्षणके लिये स्वार्थ सिद्ध कर भी लिया, परन्तु दूसरोंके स्वार्थको कुचलकर जो स्वार्थ सिद्ध किया गया है, उसका प्रतिक्रियारूप विप तो तुमको चढ़े विना, रुलाये चिना, तपाये विना नहीं छोड़ने का । जरा सोचो तो सही, स्वार्थके लिये तो स्वार्थ नहीं चाहा जाता था, परन्तु स्वार्थके मूलमें जो धेय वस्तु थी (अर्थात सुख) वह तो उल्टा अगुली दिखाकर कोसों दूर जा छुपी, बल्कि सुखी होने के बजाय उल्टा दुःखका बीज बो लिया गया, रोगको बढ़ा लिया गया। खैर जी! कुछ भी हो, वैवाल हाथ धोकर पीछे पड़ा है। हड़काये कुत्ते के समान इसने पीछा किया है और अपना भोजन लिये विना पीछा न छोड़ेगा। वैतालका भोजन है 'सच्चा सुख, 'शान्ति' । इसके बिना विषयसुखकी चटनीसे ही वातोंमें टालनेसे इसकी तृप्ति नहीं होने की। यदि तुम इसको इसका यह भोजन देनेकेलिये तैयार नहीं, तो कलेजेका रक्तपान करना तोकहीं
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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