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________________ मुनि-जीवन और आपत्काल । ८७ "क्षुदादिदुःखोंसे घबराकर उनके प्रतिकारके लिये अपने न्याय्य निय. मोंको तोड़ना उचित नहीं है; लोकका हित वास्तवमें लोकके आश्रित है और मेरा हित मेरे आश्रित है; यह ठीक है कि लोककी जितनी सेवा मैं करना चाहता था उसे मैं नहीं कर सका; परंतु उस सेवाका भाव मेरे आत्मामें मौजूद है और मैं उसे अगले जन्ममें पूरा करूँगा; इस समय लोकहितकी आशा पर आत्महितको बिगाड़ना मुनासिब नहीं है; इस लिये मुझे अब 'सल्लेखना' का व्रत जरूर ले लेना चाहिये और मृत्युकी प्रतीक्षामें बैठकर शांतिके साथ इस देहका धर्मार्थ त्याग कर देना चाहिये ।" इस निश्चयको लेकर समंतभद्र सलेखना व्रतकी आज्ञा प्राप्त करनेके लिये अपने वयोवृद्ध, तपोवृद्ध, और अनेक सद्गुणालंकृत पूज्य गुरुदेवके पास पहुँचे और उनसे अपने रोगका सारा हाल निवेदन किया। साथ ही, उनपर यह प्रकट करते हुए कि मेरा रोग निःप्रतीकार जान पड़ता है और रोगको निःप्रतीकारावस्थामें 'सल्ले खना' का शरण लेना ही श्रेष्ठ कहा गया है, * यह विनम्र प्रार्थना की कि 'अब आप कृपाकर मुझे सल्लेखना धारण करनेकी आज्ञा प्रदान करें और यह आशीर्वाद देवें कि मैं साहसपूर्वक और सहर्ष उसका निर्वाह करनेमें समर्थ हो सकूँ।' समंतभद्रकी इस विज्ञापना और प्रार्थनाको सुनकर गुरुजी कुछ दरके लिये मौन रहे, उन्होंने समंतभद्रके मुखमंडल (चेहरे) पर एक गंभीर दृष्टि डाली और फिर अपने १'राजावलोकथे' से यह तो पता चलता है कि समंतभद्रके गुरुदेव उस समय मौजूद थे और समंतभद्र सल्लेखनाकी आज्ञा प्राप्त करनेके लिये उनके पास गये थे, परंतु यह मालूम नहीं हो सका कि उनका क्या नाम था। * उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि जायां च निःप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामा: ॥१२२॥
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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