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________________ स्वामी समन्तभद्र। 'क्षुधासमा नास्ति शरीरबेदना ।' इस सीव क्षुधावेदनाके अवसर पर किसीसे भोजनकी याचना करना, दोबारा भोजन करना मथवा रोगोपशांतिके लिये किसीको अपने वास्ते अच्छे स्निग्ध, मधुर, शीतल गरिष्ठ और कफकारी भोजनोंके तय्यार करनेकी प्रेरणा करना, यह सब उनके मुनिधर्मके विरुद्ध था। इस लिये समंतभद्र, वस्तुस्थितिका विचार करते हुए, उस समय अनेक उत्तमोत्तम भावनाओंका चिन्तवन करते थे और अपने आत्माको सम्बोधन करके कहते थे " हे आत्मन् , तूने अनादि कालसे इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए अनेक बार नरक पशु आदि गतियोंमें दुःसह क्षुधाबेदनाको सहा है; उसके आगे तो यह तेरी क्षुधा कुछ भी नहीं है। तुझे इतनी भी तीव्र क्षुधा रह चुकी है जो तीन लोकका अन्न खाजावे पर भी उपशम न हो परंतु एक कण खानेको नहीं मिला। ये सब कष्ट सूने पराधीन होकर सहे हैं और इसलिये उनसे कोई लाभ नहीं हो सका, अब तू स्वाधीन होकर इस वेदनाको सहन कर। यह सब तेरे ही पूर्व कर्मका दुर्विपाक है। साम्यभावसे वेदनाको सह लेने पर कर्मकी निर्जरा हो जायगी, नवीन कर्म नहीं बंधेगा और न आगेको फिर कभी ऐसे दुःखोंकी उठानेका अवसर ही प्राप्त होगा।" इस तरह पर समंतभद्र अपने साम्यभावको दृढ़ रखते थे और कषायादि दुर्भावोंको उत्पन्न होनेका अवसर नहीं देते थे। इसके सिवाय वे इस शरीरको कुछ अविक भोजन प्राप्त कराने तथा शारीरिक शक्तिको विशेष क्षीण न होने देनेके लिये जो कुछ कर सकते थे वह इतना ही था कि जिन अनशनादिक बाह्य तथा घोर तपश्चरणोंको वे कर रहे थे और जिनका अनुष्ठान उनकी नित्यकी इच्छा तथा शक्ति पर निर्भर था—मूलगुणोंकी तरह लाजमी नहीं था- उन्हें वे ढाला अथवा स्थगित कर दें। उन्होंने
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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