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________________ मुनि-जीवन और आपत्काल । परिणतिके कारण समंतभद्र शरीरसे बड़े ही निस्पृह और निर्ममत्व रहते थे—उन्हें भोगोंसे जरा भी रुचि अथवा प्रीति नहीं थी- वे इस शरीरसे अपना कुछ पारमार्थिक काम निकालनेके लिये ही उसे थोड़ासा शुद्ध भोजन देते थे और इस बातकी कोई पर्वाह नहीं करते थे कि वह भोजन रूखा-चिकना, ठंडा-गरम, हलका-भारी, कडुआ कषायला आदि कैसा है। इस लघु भोजनके बदलेमें समन्तभद्र अपने शरीरसे यथाशक्ति खूब काम लेते थे, घंटों तक कार्योत्सर्गमें स्थित हो जाते थे, आतापनादि योग धारण करते थे, और आध्यात्मिक तपकी वृद्धिके लिये अपनी शक्तिको न छुपाकर, दूसरे भी कितने ही अनशनादि उन उम्र बाह्य तपश्चरणोंका अनुष्ठान किया करते थे। इसके सिवाय नित्य ही आपका वहुतसा समय सामायिक, स्तुतिपाठ, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, समाधि, भावना, धर्मोपदेश, ग्रंथरचना और परहितप्रतिपादनादि कितने ही धर्मकार्योंमें खर्च होता था । आप अपने समयको जरा भी धर्मसाधनारहित व्यर्थ नहीं जाने देते थे। इस तरहपर, बड़े ही प्रेमके साथ मुनिधर्मका पालन करते हुए, स्वामी समन्तभद्र जब ' मणुवकहल्ली' ग्राममें धर्मध्यानसहित आनंदपूर्वक अपना मुनिजीवन व्यतीत कर रहे थे और अनेक दुर्द्धर तपश्चरणोंके द्वारा आत्मोन्नतिके पथमें अग्रेसर हो रहे थे तब एकाएक पूर्वसंचित असातावेदनीय कर्मके तीव्र उदयसे आपके शरीरमें 'भस्मक' , बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्वमाध्यास्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम् ॥३॥ -स्वयंभूस्तोत्र। २ प्रामका यह नाम 'राजावलीकथे' में दिया है । यह कांची' के आसपासका कोई गाँव जान पड़ता है।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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