SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावी तीर्थकरत्व । इसी ग्रंथमें एक श्लोक निम्न प्रकारसे भी पाया जाता है-- रुचं बिभर्ति ना धीरं नाथातिस्पष्टवेदनः । वचस्ते भजनात्सारं यथायः स्पशेवेदिनः ॥६०॥ इसमें, थोड़े ही शब्दों द्वारा, अर्हद्भक्तिका अच्छा माहात्म्य प्रदर्शित किया है-~~यह बतलाया है कि ' हे नाथ, जिस प्रकार लोहा स्पर्शमणि ( पारस पाषाण ) का सेवन ( स्पर्शन ) करनेसे सोना बन जाता है और उसमें तेज आ जाता है उसी प्रकार यह मनुष्य आपकी सेवा करनेसे अति स्पष्ट ( विशद ) ज्ञानी होता हुआ तेजको धारण करता है और उसका वचन भी सारभूत तथा गंभीर हो जाता है।' ___ मालूम होता है समंतभद्र अपनी इस प्रकारकी श्रद्धाके कारण ही अर्हद्भक्तिमें सदा लीन रहते थे और यह उनकी इस भक्तिका ही परिणाम था जो वे इतने अधिक ज्ञानी तथा तेजस्वी हो गये हैं और उनके वचन अद्वितीय तथा अपूर्व माहात्म्यको लिये हुए थे। ___ समंतभद्रका भक्तिमार्ग उनके स्तुतिग्रंथोंके गहरे अध्ययनसे बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है । वास्तवमें समन्तभद्र ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग तीनोंकी एक मूर्ति बने हुए थे-इनमेंसे किसी एक ही योगके वे एकान्त पक्षपाती नहीं थे-निरी एकान्तता तो उनके पास भी नहीं जन्मारण्यशिखी स्तवः स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधेनौंः पदे भक्ताना परमौ निधी प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा। बन्दीभूतवतोपि नोतिहतिर्नन्तुश्च येषां मुदा दातारो जयिनो भवन्तु वरदा देवेश्वरास्ते सदा ॥१५॥ १ जो एकान्तता नयोंके निरपेक्ष व्यवहारको लिये हुए होती है उसे 'निरी' अथवा 'मिथ्या' एकान्तता कहते हैं । समन्तभद्र इस मिथ्यैकान्ततासे रहित थे; इसीसे 'देवागम'में एक आपत्तिका निरसन करते हुए, उन्होंने लिखा है-"न मिध्यैकान्ततास्ति नः।"
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy