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________________ भावी तीर्थकरत्व । माना जा ६७ इसी पद्यको श्वेताम्बरामणी श्रीमलयगिरिसूरिने भी, अपनी 'आवश्यकसूत्र'की टीकामें, 'आंधस्तुतिकारोऽप्याह' इस परिचयवाक्यके साथ उद्धृत किया है, और इस तरह पर समंतभद्रको 'आद्यस्तुतिकार'-सबसे प्रथम अथवा सबसे श्रेष्ठ स्तुतिकारसूचित किया है । इन उल्लेखवाक्योंसे यह भी पाया जाता है कि समंतभद्रकी स्तुतिकार' रूपसे भी बहुत अधिक प्रसिद्धि थी और इसी लिये ' स्तुतिकार'के साथमें उनका नाम देनेकी शायद कोई जरूरत नहीं समझी गई। समंतभद्र इस स्तुतिरचनाके इतने प्रेमी क्यों थे और उन्होंने क्यों इस मार्गको अधिक पसंद किया, इसका साधारण कारण यद्यपि, उनका भक्ति-उद्रेक अथवा भक्तिविशेष हो सकता है, परंतु, यहाँपर हम उन्हींके शब्दोंमें इस विषयको कुछ और भी स्पष्ट कर देना उचित समझते है और साथ ही यह प्रकट कर देना चाहते है कि समंतभद्रका इन स्तुति-स्तोत्रोंके विपयमें क्या भाव था और वे उन्हें किस महत्त्वकी दृष्टि से देखते थे । आप अपने स्वयंभूस्तोत्र' में लिखते हैं स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा, अवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभ श्रायसपथे स्तुयानत्वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ॥११६॥ १ इसपर मुनि जिनविजयजी अपने ' साहित्यसंशोधक ' के प्रथम अंकमें लिखते हैं-" इस उल्लेखसे स्पष्ट जाना जाता है कि ये ( समंतभद्र) प्रसिद्ध स्तुतिकार माने जाते थे, इतना ही नहीं परन्तु आथ-सबसे पहले होनेवालेस्तुतिकारका मानप्राप्त थे।"
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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