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________________ स्वामी समंतभद्र । चार, ४ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ५ संवेग, ६ शक्तितस्त्याग, ७ शक्तितस्तप, ८ साधुसमाधि, ९ वैयावृत्यकरण, १० अर्हद्भक्ति, ११ आचार्यभक्ति, १२ बहुश्रुतभक्ति, १३ प्रवचनभक्ति, १४ आवश्यकापरिहाणि, १५ मार्गप्रभावना और १६ प्रवचनवत्सलत्व, इन सोलह गुणोंसे प्रायः युक्त थे-इनकी उच्च तथा गहरी भावनाओंसे आपका आत्मा भावित था-क्योंकि, दर्शनविशुद्धिको लिये हुए, ये ही गुण समस्त अथवा व्यस्त रूपसे आगममें तीर्थंकरप्रकृति नामा 'नामकर्म की महा पुण्यप्रकृतिके आस्रवके कारण कहे गये हैं * | इन गुणोंका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी बहुतसी टीकाओं तथा दूसरे भी कितने ही ग्रंथोंमें विशद रूपसे दिया हुआ है, इस लिये उनकी यहाँपर कोई व्याख्या करनेकी जरूरत नहीं है । हाँ, इतना जरूर बतलाना होगा कि दर्शनविशुद्धिके साथ साथ, समंतभद्रकी 'अर्हद्भक्ति' बहुत बढ़ी चढ़ी थी, वह बड़े ही उच्च कोटिके विकासको लिये हुए थी । उसमें अंधश्रद्धा अथवा अंधविश्वासको स्थान नहीं था, गुणज्ञता, गुणप्रीति और हृदयकी सरलता ही उसका एक आधार था, और इस लिये वह एकदम शुद्ध तथा निर्दोष थी । अपनी इस शुद्ध भक्तिके प्रतापसे ही समंतभद्र इतने अधिक प्रतापी, तेजस्वी तथा पुण्याधिकारी हुए मालूम होते हैं। उन्होंने स्वयं भी इस बातका अनुभव किया था, और इसीसे वे अपने 'जिनस्तुतिशतक' के अन्तमें लिखते है * देखो, तत्त्वार्थाधिगम सूत्रके छठे अध्यायका २४ वाँ सूत्र, और उसके 'श्लोवार्तिक' भाष्यका निम्न पद्य विशुखपादयो नाम्नस्तीर्थकृस्वस्य हेतवः । समस्ता व्यस्तरूपा वा दृग्विशुवधा समन्विताः ॥
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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